ग़ज़ल 380 [44F]
वह झूठ बोलता था मै, घबरा के रह गया
सच बोलने को था कि मैं, हकला के रह गया
क्या शह्र का रिवाज़ था, मुझको नहीं पता
ऐसा जला कि हाथ मै सहला के रह गया
सुलझाने जब चला कभी हस्ती की उलझने
मै जिंदगी को और भी उलझा के रह गया
पूछा जो जिंदगी ने कभी हाल जो मेरा
दो बूँद आँसुओ की मै छलका के रह गया
डोरी तेरी तो और किसी हाथ मे रही
तू व्यर्थ अपने आप पे इतरा के रह गया
उससे उमीद थी कि नई बात कुछ करे
लेकिन पुरानी बात ही दुहरा के रह गया
'आनन' खुली न आँख अभी तक तेरी जरा
खुद को खयाल-ए- खाम से बहला के रह गया
-आनन्द पाठक-
सं 30-06-24
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