ग़ज़ल 379 [44A]
2122---1122---1122---112/22
जब ग़रज़ उनकी, तो रिश्तों का सिला देते हैं
काम मेरा जो पड़ा , मुझको भगा देते हैं ।
उनके एहसान को मैने तो सदा याद रखा
मेरे एहसान को कसदन वो भुला देते हैं ।
आप के सर जो झुके बन्द मकानो में झुके
मैने सजदा भी किया , सर को उड़ा देते हैं ।
आप का फ़र्ज़ यही है तो कोई बात नहीं
जुर्म किसने था किया मुझको सज़ा देते हैं ।
ज़िंदगी आज भी उनके ही क़सीदे पढ़ती
प्यार के नाम पे गरदन जो कटा देते हैं ।
आप जो ख़ुश हैं तो मुझको न शिकायत कोई
वरना अब लोग कहाँ ऐसा सिला देते हैं ।
हार जब सामने उनको नज़र आती ’आनन’
और के सर पे वो इलज़ाम लगा देते हैं ।
-आनन्द.पाठक-
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें