शुक्रवार, 24 मई 2024

ग़ज़ल 377 [ 53 A] : मसाइब ज़िंदगी के -

मसाइब ज़िंदगी के हर सफ़र में, कब रुका करते

मगर हर मोड़ पर शिद्दत से हम भी सामना करते ।

 

ज़मीर उनका बिका तो कोठियाँ उनकी सलामत हैं

मगर कुछ लोग अपनी ही शराइत पर जिया करते ।

 

कहा जो अब तलक तुमने, तुम्हारी ही सुनी हमने

हमारी भी अगर सुनते तो कुछ हम भी कहा करते ।

 

गिरेंगी बिजलियाँ तय है हमारे ही ठिकाने पर

हमारे साथ ऐसे हादिसे  अकसर हुआ करते।

 

कभी नज़रें उठा कर देखना वाज़िब नहीं समझा ,

तुम्हारी ही गली के मोड़ पर हम भी रहा करते ।

 

कभी खुल कर नहीं तुमसे कहा ऎ ज़िंदगी ! हमने

तुम्हारी ख़ैरियत का हम तह-ए-दिल से दुआ करते।

,

नहीं करना वफ़ा जिनको बहाने सौ बना देंगे -

जो करते हैं वफ़ा ’आनन’, लब-ए-दम तक,किया करते।

 


कोई टिप्पणी नहीं: