ग़ज़ल 377 [53-अ] ओके
मसाइब ज़िंदगी के हर सफ़र में, कब रुका करते
मगर हर मोड़ पर शिद्दत से हम भी सामना करते ।
ज़मीर उनका बिका तो कोठियाँ उनकी सलामत हैं
मगर कुछ लोग अपनी ही शराइत पर जिया करते ।
कहा जो अब तलक तुमने, तुम्हारी ही सुनी हमने
हमारी भी अगर सुनते तो कुछ हम भी कहा करते ।
गिरेंगी बिजलियाँ तय है हमारे ही ठिकाने पर
हमारे साथ ऐसे हादिसे अकसर हुआ करते।
कभी नज़रें उठा कर देखना वाज़िब नहीं समझा ,
तुम्हारी ही गली के मोड़ पर हम भी रहा करते ।
कभी खुल कर नहीं तुमसे कहा ऎ ज़िंदगी ! हमने
तुम्हारी ख़ैरियत का हम तह-ए-दिल से दुआ करते।
नहीं करना वफ़ा जिनको बहाने सौ बना देंगे -
जो करते हैं वफ़ा ’आनन’, लब-ए-दम तक,किया करते।
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