ग़ज़ल 377[ 53-A]
1222---1222---1222---1222
अज़ाब-ए-ज़िंदगी, वैसे सफ़र में कब रुका करते
मगर हर मोड़ पर शिद्दत से हम भी सामना करते ।
ज़मीर उनका बिका तो कोठियाँ उनकी सलामत हैं
बहुत से लोग अपने ही शराइत पर जिया करते ।
तुम्हारी ही सुनी ऎ ज़िंदगी ! जो भी कहा तुमने
हमारी भी सुनी होती तो कुछ हम भी कहा करते ।
गिरेंगी बिजलियाँ तय है कभी मेरे ठिकाने पर
हवादिश आशियाने पर मेरे अकसर हुआ करते।
कभी नज़रें उठा कर देखना वाज़िब नहीं समझा ,
तुम्हारी ही गली के मोड़ पर हम भी रहा करते ।
कभी खुल कर नहीं तुमसे कहा ऎ ज़िंदगी , हमने
तुम्हारी ख़ैरियत का हम तह-ए-दिल से दुआ करते।
नहीं करना वफ़ा जिनको बहाने सौ बना देंगे -
जिन्हे करना वफ़ा ’आनन’ लब-ए-दम तक,किया करते।
-आनन्द.पाठक-
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