शुक्रवार, 24 मई 2024

ग़ज़ल 377 [ 53-अ] : अज़ाब-ए-ज़िंदगी यूँ भी --

 

ग़ज़ल 377/ 53-अ 

1222---1222---1222---1222

अज़ाब-ए-ज़िंदगी, वैसे  सफ़र में कब रुका करते

मगर हर मोड़ पर शिद्दत से हम भी  सामना करते ।


ज़मीर उनका बिका तो कोठियाँ उनकी सलामत हैं

बहुत से लोग अपने ही शराइत पर जिया करते ।


तुम्हारी ही सुनी ऎ ज़िंदगी ! जो भी कहा तुमने

हमारी भी सुनी होती तो कुछ हम भी कहा करते ।


गिरेंगी बिजलियाँ तय है कभी मेरे ठिकाने पर

हवादिश आशियाने पर मेरे अकसर हुआ करते।


कभी नज़रें उठा कर देखना वाज़िब नहीं समझा ,

तुम्हारी ही गली के मोड़ पर हम भी रहा करते ।


कभी खुल कर नहीं तुमसे कहा ऎ ज़िंदगी , हमने

तुम्हारी ख़ैरियत का हम तह-ए-दिल से दुआ करते।


नहीं करना वफ़ा जिनको बहाने सौ बना देंगे -

जिन्हे करना वफ़ा ’आनन’ लब-ए-दम तक,किया करते।


-आनन्द.पाठक-


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