ग़ज़ल 365[39F]
221---2121---1221---212
अच्छा हुआ कि आप जो आए नहीं इधर
पत्थर लिए खड़े अभी कुछ लोग बाम पर
श्रद्धा के नाम पर खड़ी अंधों की भीड़ है
जाने किधर को ले के चलेगा यह राहबर ।
मिलता है दौड़ कर जो गले से, तपाक से
मिलिए उस आदमी से तो दामन सँभाल कर।
वैसे तुम्हारे शहर का हमको नहीं पता ,
लेकिन हमारे शहर का माहौल पुरख़तर !
आँखों में ख़ास रंग का चश्मा चढ़ा हुआ ,
देखा न उसने सच कभी , चश्मा उतार कर।
हालात शादमान कि ना शादमान हो,
जीना यहीं है छोड़ के जाना है अब किधर ।
ऐसी तुम्हारी जात तो ’आनन’ कभी न थी
कुछ माल-ओ-ज़र बना लिए दस्तार बेच कर ।
-आनन्द पाठक-
शादमान, नाशादमान = सुख-दुख , हर्ष विषाद
जात = व्यक्तित्व
माल-ओ- ज़र = धन दौलत
दस्तार = पगड़ी ,इज्जत
सं 30-06-24
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