दोहा 17: सामान्य
अगर प्यार से बोलता, मैं भी जाता मान ।
इतना भी है क्या भरा, मन में अहम गुमान ।।
ग्यानी, ध्यानी लोग जो, हमे गयौ बतलाय ।
जिसकी जितनी उम्र है, उतना ही रुक पाय ॥
प्रेम प्रीत ना देखता, क्या है किसकी जात ।
होती रहती है जहाँ , दिल से दिल की बात ॥
खोटे सिक्के चल पड़े, जब उसके दो-चार ।
ख़ुद को कहने लग गया, हुनरमंद सौ बार ॥
सबकी मंज़िल एक है, भले अलग हों राह ।
जान रहे हैं यह सभी, फिर क्यों भरते आह ॥
अगर बंद है कर दिया, अपने मन का द्वार ।
फिर ना कोई आएगा, करने को उद्धार ॥
जंगल जंगल घूमता, खाक रहा क्यों छान ।
अपने अंदर जो बसा. उसको तो पहचान ॥
-आनन्द.पाठक-
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें