सोमवार, 6 मई 2024

ग़ज़ल 363 / 58-अ : कहने की बात और है--


ग़ज़ल 363 /58 -अ


221---2121---1221---212 [1]


कहने की बात और है, करने की बात और

कुछ कर्ज़ ज़िंदगी के हैं, भरने की  बात और ।


गमलों में जो उगे हैं बताएँगे क्या हमें ,

तूफ़ान आँधियों से निखरने की बात और ।


जड़ से कटे हुओं की तो दुनिया अलग रही

अपनी ज़मीन जड़ से सँवरने की बात और ।


बैसाखियों पे आप टँगे थे तमाम उम्र 

खुद के ही पाँव चलने उतरने की बात और ।


आसान रास्ते से तो चलते तमाम लोग

काँटों भरी हो राह गुजरने की बात और।


वादे हज़ार आप किए और चल दिए

अपने दिए ज़ुबान पे मरने की बात और ।


’आनन’ ये लूट पाट हुई रोज़ की ख़बर 

गुलशन,बहार, फूल की, झरने की बात और ।


-आनन्द.पाठक-





कोई टिप्पणी नहीं: