ग़ज़ल 376 [52 A]
2122---2122---2122---2
बह्र-ए-रमल मुसम्मन मजहूफ़ [ महज़ूफ़ नहीं है।
काश ! सूरत आप की असली नज़र आती
आप की सदभावना, झूठी नज़र आती ।
वक़्य आने पर खड़े होंगे चलो , माना
काश ! उनके रीढ़ की हड्डी नज़र आती ।
जब भी सुनते राग दरबारी सुना करते
वेदना मेरी उन्हें गाली नज़र आती ।
आदमी की मुफ़लिसी हो या कि रंज़-ओ-ग़म
अब उन्हें हर बात में ;कुर्सी; नज़र आती ।
जब से ’दिल्ली’ जा के बैठे हो गए अंधे
क्यारियाँ सूखी भी हरियाली नज़र आती ।
हाथ धोने के लिए बेताब बैठे हैं ,
’योजना’-गंगा सी कुछ बहती नज़र आती ।
आदमी की जब कभी बोली लगी ’आनन’
’आदमीयत’ मुफ़्त में बिकती नज़र आती ।
-आनन्द.पाठक-
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