गुरुवार, 23 मई 2024

ग़ज़ल 376 [ 52-अ] : काश ! सूरत आप की असली नज़र आती


ग़ज़ल 376/ 52-अ

2122---2122---212---2

बह्र-ए-रमल मुसम्मन मजहूफ़ [ महज़ूफ़ नहीं है।


काश ! सूरत आप की असली नज़र आती

आप की सदभावना,  झूठी  नज़र आती ।


वक़्य आने पर खड़े होंगे चलो , माना 

काश ! उनके रीढ़ की हड्डी नज़र आती ।


जब भी सुनते राग दरबारी सुना करते 

वेदना मेरी उन्हें गाली  नज़र  आती ।


आदमी की मुफ़लिसी हो या कि रंज़-ओ-ग़म

अब उन्हें हर बात में ;कुर्सी; नज़र आती ।


जब से ’दिल्ली’ जा के बैठे हो गए अंधे

क्यारियाँ सूखी भी हरियाली नज़र आती ।


हाथ धोने के लिए बेताब बैठे हैं ,

’योजना’-गंगा सी कुछ बहती नज़र आती ।


आदमी की जब कभी बोली लगी ’आनन’

’आदमीयत’ मुफ़्त में बिकती नज़र आती ।


-आनन्द.पाठक-





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