ग़ज़ल 373 [48 A]
221---1222//221---1222
सुनना ही नहीं उनको, क्या उनको सुनाना है
बहरों के मुहल्लों में , क्या शंख बजाना है ।
सावन में हुआ अंधा, हर रंग हरा दिखता ,
मानेंगा नहीं जब वो, क्या सच का बताना है
दावा तो यही करता, वह एक खुली पुस्तक
हर पेज फटा जिसका, क्या है कि पढ़ाना है।
एहसान फ़रामोशी , रग रग में भरी उसके
वह जो भी कहे चाहे , सब झूठ बहाना है ।
चाबी का खिलौना है, चाबी से चला करता
जितनी हो ज़रूरत बस , उतना ही चलाना है।
मालूम सभी को है, है रीढ़ नहीं उसकी
किस ओर ढुलक जाए, क्या उसका ठिकाना है ।
भीतर से बना हूँ जो , बाहर भी वही ’आनन’
दुनिया जो भले समझे, क्या है कि छुपाना है ।
-आनन्द.पाठक-
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें