मंगलवार, 21 मई 2024

ग़ज़ल 373 [ 48-अ] : सुनना ही नहीं उनको

 

ग़ज़ल 373 [48-अ]

221---1222//221---1222


सुनना ही नहीं उनको, क्या उनको सुनाना है

बहरों के मुहल्लों में , क्या शंख बजाना है ।


सावन में हुआ अंधा, हर रंग हरा दिखता ,

मानेंगा नहीं जब वो, क्या सच का बताना है


दावा तो यही करता, वह एक खुली पुस्तक

हर पेज फटा जिसका, क्या है कि पढ़ाना है।


एहसान फ़रामोशी , रग रग में भरी उसके

वह जो भी कहे चाहे , सब झूठ बहाना है ।


चाबी का खिलौना है, चाबी से चला करता

जितनी हो ज़रूरत बस , उतना ही चलाना है।


मालूम सभी को है, है रीढ़ नहीं उसकी 

किस ओर ढुलक जाए, क्या उसका ठिकाना है ।


भीतर से बना हूँ जो , बाहर भी वही ’आनन’

दुनिया जो भले समझे, क्या है कि छुपाना है ।


-आनन्द.पाठक-

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