मंगलवार, 6 नवंबर 2007

दोहे 03 : चुनावी दोहे

चुनावी दोहे 03


वैचारिक प्रतिबद्धता, बदले बारम्बार ।
 कुर्सी ही इक सत्य है, बाक़ी मिथ्याचार ॥

करनी उसकी देख कर,सोच रहा हूँ आज ।
कितना ’कट्टर’ है मिरा, झूठों का सरताज ॥

नेता ढुलमुल बोलते, सदा करें बकवास ।
जनता सुन सुन खुश हुई, करे उन्हीं से आस॥

कलतक ’सैकिल’ से चले, मुखिया जी, सरपंच ।
आज ’बोलेरो’ से गए, सभी चुनावी मंच ॥

कहते हैं ’घर वापसी’, गए जिसे थे छोड़।
दाल वहाँ जब ना गली,  लौटे हैं मुंह मोड़॥

लौटे पलटी मार कर, लगे पूछने क्षेम ।
मजबूरी या शौक़ है, या कुर्सी से प्रेम ॥

सपने वादे झूठ के, फैला कर वह जाल ।
मानेगा लगता हमें, कर के ही कंगाल ॥

-आनन्द पाठक-
सं 10-07-24



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