मंगलवार, 13 नवंबर 2007

कविता 02:महानगर है ...

कविता 02

महानगर है
कहते हैं यह महानगर है
गिर जाए बीज अगर भूले से
उगता नहीं ,यहाँ जीता है
कारों के पहिए के नीचे
दब जाते हैं कितने अंकुर

जीने को मिलता सीलन
एक सडन ,संत्रास ,घुटन
जहरीली हवा अँधेरा ,जिनका कोई नही सवेरा
श्वास-श्वास में भरा धुआ है
जीवन जैसे अंध कुआ है
हर दिवस ही महासमर है
महानगर है
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फिर उगती कैक्टस की पौध
नागफनी के कांटे
शून्य ह्रदय ,संवेदनहीन
पसरे फैले दूर-दूर तक
अंतहीन सन्नाटे
नहीं उगते हैं चंदन वन
रक्तबीज के वंशज उगते
वृक्षों पर नरभक्षी उगते
टहनी पर बदूकें उगती
पास गए तो छाया चुभती
कुछ लोग तो पाल-पोष
गमलों में रखते
शयन-कक्ष में,घर-आँगन में
धीरे-धीरे फ़ैल-फ़ैल कर
शयन-कक्ष से, घर से बढ़ कर
गली-गली में बढ़ते -बढ़ते
हो जाता संपूर्ण शहर
जंगल ही जंगल
कांक्रीट का जंगल
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कांक्रीट के जंगल में
आता नहीं वसंत
बस आते कौओं के झुंड
गिध्धों की टोली
नहीं गूंजती कोयल बोली
गूंजा करते बम्ब धमाके
बंदूकों की गोली

फूल पलाश के लाल नहीं दिखते हैं
रंग देते हैं हमी शहर के दीवारों को

लाल-रंग से खून के छीटें
नहीं सुनाती संगीत हवाएं
मादक द्रव्य सेवन करते
हमी नाचते झूमे-गाएं
हमी मनाते गली-शहर
दिग-दिगंत ,अपना वसंत

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सच है यह भी
इस जंगल के मध्य अवस्थित
कहीं एक छोटा -सा उपवन
नंदन -कानन
छोटा-सा पोखर ,शीतल-जल,मन-भावन
अति पावन
पास वहीं केसर की क्यारी
महक रही है
हरी मखमली घास चुनरिया
पसरी फैली हुई लताएँ

अल्हड़ युवती -सी
महकी -महकी हुई हवाएं रजनी-गंधा सी


काश ! कि यह छोटा उपवन
फ़ैल-फ़ैल जंगल हो जाता
जन-जन का मंगल हो जाता

-आनन्द पाठक--

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