बुधवार, 9 नवंबर 2022

ग़ज़ल 284 [49इ]: बन के साया चल रहा था हमक़दम

 ग़ज़ल 284[49इ]


2122--2122--212


बन के साया चल रहा था हमक़दम 

’अलविदा’ कह कर गया मेरा सनम


वक़्त देता ज़ख़्म हर इनसान को

वक़्त ही भरता रहेगा दम ब दम


बोझ यह हल्का लगेगा दिन ब दिन

हौसले से जब रखोगे हर क़दम


बोझ अपना ख़ुद उठाना उम्र भर

सिर्फ़ लफ़्ज़ों से नहीं होते हैं कम


ज़िन्दगी आसान तो होती नहीं

रहगुज़र में सैकड़ॊं हैं पेंच-ओ-ख़म


फ़लसफ़े की बात है अपनी जगह

बाँटता है कौन किसका दर्द-ओ- ग़म


जानता है तू भी ’आनन’ सत्य क्या

बेसबब क्यों कर रहा है चश्म-ए-नम?


-आनन्द.पाठक

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