सोमवार, 30 जनवरी 2023

चन्द माहिए : क़िस्त 95/05

 क़िस्त 95/05 [माही उस पार]

1

सपनों के शीश महल

टूट ही जाना है

सच, आज नहीं तो कल


2

चलने की तैय्यारी

आ मेरी माहिया

कुछ और निभा यारी


3

मेरी भी गली में आ

ओ मेरी माहिया !

 बस एक झलक दिखला


4

कांटों से भरी राहें

तेरे दर की हों 

फिर भी तुमको चाहें


5

आसान नहीं होतीं

प्रेम नगर वाली

गलियाँ सँकरी होतीं


चन्द माहिए : क़िस्त 94/04

 क़िस्त 94/04 [माही उस पार]


1

कुछ यादें रह जाती

सूनी आँखों में

आँसू बन कर आतीं


2

कोई मिल जाता है

राह-ए-मुहब्बत में 

फिर क्यों खो जाता है?


3

कलियाँ सहमी सहमी

माली की नज़रें

दिखतीं बहकी बहकी


4

कुछ अपनी सीमाएँ

मर्यादा की हैं

हम भूल नहीं जाएँ


5

मैं इक प्यासा राही

मिलना है मुझको

उस पार मेरा माही 


चन्द माहिए : क़िस्त 93/03

 


क़िस्त 93/ 03 [माही उस पार]


1

दुनिया की छोड़ो तुम

क्या करना इसका

दिल से दिल जोड़ो तुम


2

ख़्वाबों में मिला करना

लौट के आऊँगा

इक दीप जला रखना


3

अब क्या मजबूरी है

और सुना माहिया

तेरी बात अधूरी है


4

जानी पहचानी सी

लगती है तेरी

कुछ मेरी कहानी सी


5

बाग़ों के बहारों का

रंग चढ़ा मुझ पर

कलियों के नज़ारों का


चन्द माहिए : क़िस्त 92/02

 क़िस्त 92/ 02[माही उस पार]


1

अब और न कर बातें

झेल चुकी हूँ मैं

हर बार तेरी घातें ।


2

टुकड़ा टुकड़ा जीवन

जोड़ के जीते हैं

जीने का है बन्धन


3

गो, सुनने में तीखे

पैसों के आगे

सब रिश्ते हैं फीके


4

आदाब मुहब्बत के

कुछ तो निभाते तुम

अन्दाज़ नज़ाक़त के


5

कैसी थी मुलाकातें

कुछ तो बता, गुइयाँ !

क्या क्या थी हुई बातें


चन्द माहिए: क़िस्त 91/01

 क़िस्त 91 /01: [माही उस पार]

1

सावन के महीने में

आग लगी कैसी

कलियों के सीने में 


2

भूले से आ जाते

सावन में साजन

झूले पे झुला जाते


3

सावन की फुहारों से

जलता है तन-मन

जैसे अंगारों से


4

रुक ! सुन तो ज़रा बादल !

कैसे है प्रियतम?

यह पूछ रही पायल 


5

सावन की हरियाली

मस्त हुआ मौसम

कलियाँ भी मतवाली


रविवार, 29 जनवरी 2023

अनुभूतियाँ 125/12

 अनुभूतियाँ 125/क़िस्त 12


497

जीवन है सौग़ात किसी की

जब तक जीना, हँस कर जीना

बात बात पर रोना क्या है

हर पल आँसू क्यों है पीना


498

देख सुबह की नव किरणों को

आशाएँ लेकर आती हैं

शीतल मन्द सुगन्ध हवाएँ

नई चेतना भर जाती हैं


499

कण कण में है झलक उसी की

अगर देखना चाहो जो तुम

वरना सब बेकार की बातें

नहीं समझना चाहो जो तुम


500

रोज़ शाम ढलते ही छत पर

एक दिया रख आ जाती हूं~

लौटोगे तुम इसी राह से

सोच सोच कर हुलसाती हूं~


अनुभूतियाँ 124/11

 क़िस्त 124/क़िस्त 11

 

 493

आग लगाने वाली बातें

बार बार दुहराती क्यों हो

ला हासिल था तब भी,अब भी 

माजी में फिर जाती क्यों  हो 

 

494

मिलना जुड़ना और बिछ्ड़ना

यह जीवन का क्रम है सुमुखी !

सदा बहारों का मौसम हो-

एक कल्पना है भ्रम है सुमुखी !

 

495

मंज़िल मिलना या ना मिलना

यह तुम पर निर्भर करता है

राह कहाँ इसमे दोषी है-

जो जैसा करता, भरता है

 

496

बार बार यह कहते रहना

नहीं ज़रूरत तुम्हे किसी की

जिसको तुम ने ठुकराया हो

कहीं ज़रूरत पड़े उसी की


अनुभूतियाँ 123/10

 

क़िस्त 123/क़िस्त 10

 489

जब से दूर गए हो प्रियतम

साथ गईं मेरी साँसे भी

देख रही हैं सूनी राहें

और प्रतीक्षारत आँखे भी

490

मीठी मीठी बातें उनकी

ज़हर भरें हैं दिल के भीतर

नए ज़माने की रस्में हैं

क्यों लेती हो अपने दिल पर

 491

नफ़रत के बादल है अन्दर

कुछ दिन में जब छँट जाएँगे

प्रेम दया करुणा के सागर

खुद बह कर बाहर आएँगे

 

492

राह अभी माना दुष्कर है

उसके आगे राह सरल है

लक्ष्य साधना क्या मुश्किल है

इच्छा शक्ति अगर अटल है


 

अनुभूतियां 122/09

 

क़िस्त 122/क़िस्त 9

 

485

जनता को क्या अनपढ़ समझा

लम्बी लम्बी फेंक रहे हो

जलता है घर और किसी का

अपनी रोटी सेंक रहे हो

 

486

सुख दुख जीवन के दो पहलू

बारी बारी आना जाना

आजीवन कब दोनों रहते

क्या हँसना क्या नीर बहाना

 

487

सबके अपने अपने मसले

सब की अपनी है मजबूरी

साथ निभानेवाला कोई-

हमराही है एक ज़रूरी

 

488

मीठी मीठी चिकनी चुपड़ी

समझ रहा हूँ बातें सारी

देख रहा हूँ पट के पीछे

शहद घुली है घात कटारी


 

अनुभूतियाँ 121/08

 

क़िस्त 121/क़िस्त 8

 

481

बातों में जब गहराई हो

सब सुनते हैं सब गुनते हैं

हवा-हवाई बातॊ से भी-

कुछ हैं जो सपने बुनते हैं

 

482

साथ किसी का ठुकरा देना

अभी तुम्हारी आदत होगी

जीवन के एकाकी पथ पर

मेरी तुम्हें ज़रूरत होगी

 

483

साथ तुम्हारे होने भर से

हर मौसम बासंती मौसम

कट जाता यह सफ़र हमारा

साथ अगर तुम होते हमदम

 

484

किया  भरोसा मैने तुम पर

और तुम्हारी राहबरी का

कमरे में जयकार किसी का

बाहर नारा और किसी का

 

अनुभूतियाँ 120/07

 

क़िस्त 120/क़िस्त 7

 

477

जिन बातों से चोट लगी हो

मन में उनको, फिर लाना क्यों

जख्म अगर थक कर सोए हो

फिर उनको व्यर्थ जगाना क्यों

478

बीत गए वो दिन खुशियों के

शेष रह गई याद पुरानी

जीवन के पन्नों पर बिखरी

एक अधूरी लिखी कहानी

 

479

पर्दे के पीछे से छुप कर

कौन नचाता है हम सबको

कौन है वो जो खुशियाँ देता

कौन है जो देता ग़म सबको

 

480

सब दरवाजे बंद हो गए

होता नही कभी जीवन में

एक रोशनी अंधियारों में

सदा छुपी रहती है मन में

अनुभूतियाँ 119/06

 

क़िस्त 119/क़िस्त 6

 

473

देख रही हूँ दूर खड़े तुम

प्यास हमारी, तुम हँसते हो

बात नई तो नहीं है ,प्रियतम !

श्वास-श्वास  में  तुम बसते हो

 

474

आज नहीं तो कल लौटेंगी

गईं बहारें  फिर उपवन में

लौटोगी तुम फूल खिलेंगे

मेरे इस वीरान चमन में

 475

लाख मना करता है ज़ाहिद

कब माना करता है यह दिल

मयखाने से बच कर चलना

कितना होता है यह मुश्किल

 

476

भाव समर्प्ण नहीं हॄदय में

व्यर्थ तुम्हारी सतत साधना

पूजन-अर्चन से क्या होगा

मन में हो जब कुटिल भावना

अनुभूतियाँ 118/05

 

क़िस्त 118/क़िस्त 5

 

 

469

आ अब लौट चले मेरे दिल !

यादों की भूली बस्ती में

जहाँ उन्हे छेड़ा करते थे

अपनी धुन में , मस्ती मे

 

470

 

निश-दिन याद करूँगा तुम को

हक़ है मेरा उन यादों पर

जाने अनजाने जो किया था

मुझे भरोसा उन वादों पर


471

पहले वाली बात कहाँ अब

मौसम बदला तुम भी बदली

वो भी दिन क्या दिन थे अपने

मैं ’पगला’ तुम थी ’पगली’

 

472

शाम ढलेगी , गोधूली में

सब चरवाहें घर जाएंगे

हमको भी तो जाना होगा

कितने दिन तक रह पाएँगे


 

अनुभूतियाँ 117/04

 

क़िस्त 117/क़िस्त 4

 

465

अगर तुम्हे लगता हो ऐसा

साथ छोड़ना ही अच्छा है

जिसमे खुशी तुम्हारी होगी

मुझे तुम्हारा दिल रखना है

 

466

जा ही रहे हो लेते जाना

टूटा दिल यह, सपने सारे

क्या करना अब उन वादों का

तड़पाएँगे साँझ-सकारे ।

 

467

जहाँ रहो तुम ख़ुश रहना तुम

खुल कर जीना हाँसते गाते

अगर कभी कुछ वक़्त मिले तो

मिलते रहना आते-जाते

 

468

छोड़ गई तुम ख़ुशी तुम्हारी

लेकिन याद तुम्हारी बाक़ी

तुम्हें मुबारक नई ज़िंदगी

मुझको रहने दो एकाकी

अनुभूतियाँ 116/03

 

क़िस्त 116/क़िस्त 3

461

झगड़ा करना रूठ भी जाना

और मुझी पर दोष लगाना

कितना सब आसान तुम्हे है

बेमतलब का रार बढ़ाना

 

462

छोड़ गया जब कोई अचानक

दिल में सूनापन रहता है

एक ख़लिश सी रहती दिल में

दिल चुप हो कर सब सहता है


463

तू तू मैं मैं  से क्या होना

जो होना था हो ही गया अब

उन बातों का क्या करना है

ख़्वाब जगा था ,सो भी गया अब

 

464

हम दोनों के दर्द एक से

लेकिन दबा रहें हम दोनों

कहने को तो बात बहुत है

लेकिन छुपा रहे हम दोनों

अनुभूतियाँ 115/02

 

क़िस्त 115/क़िस्त 2

 

457

शायद तुम को खुशी इसी में

तुम जीती हो हारा हूँ मैं

अच्छा कोई बात नहीं है

फिर भी एक किनारा हूँ मैं

 

458

और कोई होता समझाता

तुमको समझाना मुश्किल है

एक लकीर खिंची पत्थर पर

और तुम्हारा पत्थर दिल है

 

459

सौ बातों की एक बात है

सब कुछ होता दिल के अन्दर

मानों तो ’देवत्व’ छुपा है

वरना पत्थर तो है पत्थर

 

460

इतना हठ भी ठीक नहीं है

टूट गया दिल फिर न जुड़ेगा

राख बची रह जाएगी फिर

अरमानों का धुँआ उड़ेगा

अनुभूतियाँ 114/01

 

क़िस्त 114/ 01 

453

कब आना था तुमको लेकिन

निश दिन मैने राह निहारे

हर आने जाने वाले से

पूछ रहा हूँ  साँझ-सकारे।

454

जिन रिश्तों में तपिश नहीं हो

उन रिश्तों को क्या ढोना है

हाय’ हेलो तक ही रह जाना

रस्म निबाही का होना है

455

कैसे मैं समझाऊँ तुमको

नही समझना ना समझोगी

तुम्ही सही हो, मैं ही ग़लत हूँ

बिना बात मुझ से उलझोगी

456

बात बात पर नुक़्ताचीनी

बात कहाँ से कहाँ ले गई

क्या क्या तुमने अर्थ निकाले

जहाँ न सोचा, वहाँ ले गई

शुक्रवार, 27 जनवरी 2023

ग़ज़ल 298 [63इ]: आग पहले तुम्ही लगाते हो

 ग़ज़ल 298/63


2122--1212--22

आग पहले तुम्हीं लगाते हो
और तुम ही जले-बताते हो

इन अँधेरों को कोसने वालों
इक दिया क्यूँ नहीं जलाते हो

झूठ की नींव पर खड़े होकर
रोज़ तोहमत नया लगाते हो

काँच का घर ही जब नहीं मेरा
खौफ़ पत्थर का क्या दिखाते हो

बाँध जब टूटने का ख़तरा है
सब्र क्यों और आजमाते हो

बात बननी ही जब नहीं कोई
बात फिर क्यों वही उठाते हो

आख़िरी सफ़ में है खड़ा ’आनन’
ाद कर के भी भूल जाते हो ?


-आनन्द.पाठक-
सफ़= पंक्ति कतार 

मंगलवार, 24 जनवरी 2023

ग़ज़ल 297 [62इ] : फेर ली तुमने क्यों मुझसे अपनी नज़र

 ग़ज़ल 297/62


212--212--212--212

फेर ली तुमने क्यों मुझसे अपनी नज़र

छोड़ कर दर तुम्हारा मैं जाऊँ किधर ?


ये अलग बात है तुम न हासिल हुए

प्यार की राह लेकिन चला उम्र भर


उठ के दैर-ओ-हरम से इधर आ गया

जिंदगी मयकदे में ही आई नजर


ख़ुदनुमाई से तुमको थी फ़ुरसत कहाँँ

देखते ख़ुद को भी देखते किस नज़र


बोल कर थे गए लौट आओगे तुम

रात भी ढल गई पर न आई ख़बर


सरकशी मैं कहूँ या कि दीवानगी 

वह बनाने चला बादलों पर है घर


उसको ’आनन’ सियासी हवा लग गई

झूठ को सर झुकाता सही मान कर 


-आनन्द.पाठक-

सोमवार, 23 जनवरी 2023

ग़ज़ल 296[61इ] ; मिलता हूँ गले लग कर

 ग़ज़ल 296 [61इ]


221--1222 // 221-1222


मिलता हूँ गले लग कर, अपनी तो है बीमारी

दिल खोल के रखता हूँ, यारों से है दिलदारी


जो दाग़ लगे दिल पर नफ़रत से कहाँ मिटते

हर बार मुहब्बत ही नफ़रत पे पड़ी भारी


सत्ता के नशे में तुम रौंदोगे अगर यूँ ही

मज़लूम के हर आँसू बन जाएगी चिंगारी


कीचड़ से सने कपड़े कीचड़ से कहाँ धुलते

हर शख्स में होती जो, इतनी तो समझदारी


तुम दूध पिलाते हो साँपों को बसा घर में

वो आज नहीं तो कल कर जाएंगे गद्दारी


आसान नहीं होता ईमान बचा रखना

फिर काम नही आती जुमलॊं की अदाकारी


”आनन’ की जमा पूँजी बाक़ी है बची अबतक

इक चीज़ शराफ़त है इक चीज़ है ख़ुद्दारी


-आनन्द.पाठक-

रविवार, 22 जनवरी 2023

ग़ज़ल 295[60इ] : यही देखा किया मैने--

 ग़ज़ल 295[60इ]

1222---1222---1222---1222


यही देखा किया मैने यही होता रहा अक्सर

कभी नदियाँ रहीं प्यासी कभी प्यासा रहा सागर


जो डूबोगे तो जानोगे किसी दर्या की गहराई

भला समझोगे तुम कैसे किनारों पर खड़े होकर


जो अफ़साना अधूरा था विसाल-ए-यार का मेरा

चलो बाक़ी सुना दो अब कि नींद आ जाएगी बेहतर


हमें ऎ ज़िंदगी ! हर मोड़ पर क्यों आजमाती है

हमारे आशियाँ पर क्यों तुम्हारे ख़ौफ़ का मंज़र ?


नदी को इक समन्दर तक लबों कि तिश्नगी उसकी

पहाड़ों में कि सहरा में दिखाती राह बन ,रहबर 


उधर अब शाम ढलने को ,इधर लम्बा सफ़र बाक़ी

तराना छेड़ कुछ ऐसा सफ़र कट जाए, ऎ दिलबर !


तमाशा खूब है यह भी, किसे तू ढूँढता 'आनन'

जिसे तू ढूँढता रहता वो रहता है तेरे अन्दर


-आनन्द.पाठक-


शुक्रवार, 20 जनवरी 2023

ग़ज़ल 294[59इ] : जमाल-ओ-हुस्न जब उनका----

 ग़ज़ल 294

1222---1222---1222--1222


जमाल-ओ-हुस्न  जब उनका बहारों पर उतर आया

चमन गाने लगा सरगम दिल अपना भी निखर आया


हज़ारों रंग से हमने सँवारी ज़िंदगी अपनी

मगर हर रंग में इक रंग उनका भी उभर आया


मुहब्बत में कमी होगी, वो नादाँ भी रहा होगा

तुम्हारे दर तलक जा कर भी वापस लौट कर आया


निगाह-ए-शौक़ से क्या क्या मनाज़िर है नहीं गुज़रे

न उनकी रहगुज़र आई, न नक़्श-ए-पा नज़र आया


ढलेगी शाम अब साथी परिंदे घर को लौटेंगे

चलो अब ख़त्म होने को हमारा भी सफ़र आया


समझना ही नहीं चाहा कभी इस दिल की चाहत को

तुम्हें सिक्के का बस क्यों  एक ही पहलू नज़र आया


ये दीवानों की बस्ती है, फ़ना है आख़िरी मंज़िल

तमाशाघर नहीं 'आनन' समझ कर क्या इधर आया ?

-आनन्द.पाठक-






ग़ज़ल 293 [58इ] : ये हक़ीक़त है या फ़साना है

 ग़ज़ल 293[58इ]

2122---1212--22


ये हक़ीक़त है या फ़साना है

हर जगह आप का ठिकाना है


आप से हम क़रार क्या करते

आप को कौन सा निभाना है


वक़्त की बारहा कमी रोना

जानता हूँ फ़क़त बहाना है


आप आएँ ग़रीबख़ाने पर

ख़ैर मक़दम में सर झुकाना है


आसमाँ से ज़मीं पे आ जाते

हाल-ए-दुनिया तुम्हे दिखाना है


रूठ कर जाते भी कहाँ जाते

लौट कर फिर यहीं पे आना है


इल्तिज़ा और क्या करूँ ’आनन’

वक़्त रहते न उनको आना है


-आनन्द.पाठक-


मंगलवार, 17 जनवरी 2023

ग़ज़ल 292[57इ] : कल तुम्हारा शहर सारा जश्न में डूबा रहा

 ग़ज़ल 292 [57 इ]

2122---2122---2122--212


कल तुम्हारा शहर सारा जश्न में डूबा रहा

पर हमारी बस्तियों में एक सन्नाटा रहा


वह मुजस्सम सामने है फ़ाइलों में मर चुका

पर अदालत में महीनों मामला अटका रहा


प्यार के ’पैंतीस’टुकड़े काट कर फेंके गए

’आदमीयत’ मर गई पर आदमी ज़िंदा रहा


बन्द कर लेता हैं आँखें रोशनी चुभती उसे

इसलिए ही तीरगी से वास्ता उसका रहा


जब कहीं आया नज़र कोई चमन हँसता हुआ

ले के ’माचिस’ हाथ में साज़िश का वो चेहरा रहा


चाहतें बढ़ती गईं और प्यास थी कुछ इस तरह

पी गया पूरी नदी वह बा'द हु प्यासा रहा


दौर-ए-हाज़िर की अब ’आनन’ क्या रवायत हो गई

सच इधर सूली चढ़ा बातिल उधर गाता रहा ।


-आनन्द,पाठक-

रविवार, 15 जनवरी 2023

ग़ज़ल 291[56इ] : वह अँधेरो की हिफ़ाज़त में लगा है

 ग़ज़ल 291[56इ]

2122---2122---2122


वह अँधेरों की हिफ़ाज़त में लगा है

रोशनी की ही शिकायत में लगा है


धूप कितनी चढ़ गई उसको पता क्या

वह पुरानी ही हिकायत में लगा है


हो बलाएँ, मौत हो सैलाब आए

हादिसों पर वह सियासत में लगा है


इक तरफ़ मक़्तूल पर आँसू बहा कर

अब वह क़ातिल की जमानत में लगा है


ज़ाहिरन मजलूम की है बात करता

दल बदल वाली तिजारत में लगा है


बन्द कमरे में हमेशा सरनिगूँ जो

वह दिखावे की बग़ावत में लगा है


राग दरबारी सुनाने में लगे सब

और तू ’आनन’ दियानत में लगा है ?


-आनन्द पाठक-

शनिवार, 14 जनवरी 2023

ग़ज़ल 290 [55E] : उनसे मिलना नहीं हुआ ---

 ग़ज़ल 290[55E]


2122---1212---22


उनसे मिलना नहीं हुआ फिर भी

शौक़ मेरा बना रहा फिर भी


आग नफ़रत की बुझ चुकी कब की

लोग देते रहे हवा फिर भी


अह्ल-ए-दुनिया कहे बुरा मुझको

मैने माना नहीं बुरा फिर भी


छोड़ कर जो चला गया मुझको

याद आता है बारहा फिर भी


वह मिला भी तो फ़ासिले से मिला

वह गले से नहीं मिला फिर भी


सच अगर सच है ख़ुद ही बोलेगा

लाख हो झूठ से दबा फिर भी


जागना था उसे जहाँ ’आनन’

जाग कर हैफ़! सो गया फिर भी


-आनन्द.पाठक--


अनुभूतियाँ : क़िस्त 113

 

449

भली रही या बुरी रही थी ,

एक लगन की एक अगन थी,

तेरे घर की राहें दुष्कर,

लेकिन चाहत आजीवन थी ।

 

 

450

दुनिया चाहे जो भी समझे,

’अनुभूति’ के रंग हमारे,

वक़्त कसौटी पर जाँचेगा,

रंग निखर आएँगे  सारे ।

 

451

जब हमने ख़ुद राह चुनी है,

राह-ए-मुहब्बत, राह फ़ना की

दोष किसी को फिर देना क्या

किसने छोड़ी राह वफ़ा  की ।

 

452

सच का साथ न छोड़ा मैने,

द्वन्द  रहा आजीवन मन में.

साँस साँस बन हर पल उतरी,

’अनुभूति’ मेरे जीवन में ।


00---00---00


आखिरी बंद



भावनाएँ कभी बन गईं तितलियाँ
वेदनाएँ तड़प कर बनी बिजलियाँ
जब न पीड़ा मेरी ढल सकी शब्द में
बन के आँसू ढली मेरी अनुभूतियाँ

 

 

-- समाप्त-