ग़ज़ल 186
112---112---112--112--//112--112--112--112
बह्र-ए-मुतदारिक मख़्बून मुसम्मन मुज़ाइफ़
तुम नादाँ हो ,नावाक़िफ़ हो, मैं अर्ज़-ए-मुहब्बत क्या करता !
आदाब-ए-मुहब्बत क्या जानो, ग़म-ए-दिल की शिकायत क्या करता !
मालूम तुम्हें भी है सब कुछ, इक दिल की चाहत क्या होती
’लैला-मजनूँ के किस्से का , मैं और वज़ाहत क्या करता
आना ही नहीं था जब तुमको ,दीदार नहीं होना है कभी
फिर झूठे वादे ख़्वाबों से , तामीर-ए-इमारत क्या करता
मौसम का आना जाना है, कभी जश्न-ए--फ़ज़ाँ ,कभी दौर-ए-खिजाँ
दो दिन की फ़ानी दुनिया में ,इजहार-ए-मसर्रत क्या करता
बेमतलब कौन यहाँ मिलता , सबके अपने अपने मतलब
जब दाल गली उसकी न यहाँ , वह मुझसे रफ़ाक़त क्या करता
तसवीर जो क़ायम थी दिल में , तनहाई में बातें कर ली
सजदे में झुकाया सर अपना ,हर दर पे इबादत क्या करता
’आनन’ क्यों ख़ौफ़ क़यामत का, जब उनकी इनायत हो मुझ पर
जब वो ही मेरे हाफ़िज़ ठहरे ,मैं खुद की हिफ़ाज़त क्या करता
-आनन्द.पाठक-
शब्दार्थ
तामीर-ए-इमारत = भवन निर्माण
इज़हार-ए-मसर्रत = ख़ुशी का इज़हार
रफ़ाक़त = दोस्ती
हाफ़िज़ = हिफ़ाज़त करने वाला