शनिवार, 6 अक्टूबर 2018

ग़ज़ल 104 [04 A] : जड़ों तक साज़िशें गहरी---


1222---1222--1222--122 ओके
एक ग़ज़ल 104[04 A] : जड़ों तक साजिशें गहरी---

जड़ों तक साज़िशें गहरी, सतह पर हादसे थे ।
जहाँ बारूद की ढेरी, वहीं  पर  घर  बने थे ।

हवा में मुठ्ठियाँ ताने  जो सीना ठोकते थे,
ज़रूरत जब पड़ी उनकी, तो उनके सर झुके थे

हमेशा आसमाँ को देखते चलते रहे वो
ज़मीं पाँवों तले थी खोखली, फिर भी खड़े थे


मुक़ाबिल रोशनी के वह, अँधेरा ले के आए,
वो अपने आप की परछाईयों  से यूँ डरे थे ।

 
हमारी चाह थी इतनी कि दर्शन आप के हों
मिले जब भी कहीं हम आप से, चेहरे चढ़े थे ।

 

बहुत उम्मीद थी ’आनन’ ,बहुत आवाज़ भी दी,
उन्हे जब चाहिए था जागना सोए हुए  थे ।



-आनन्द.पाठक--

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