ग़ज़ल 027[17]
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फ़ऊलुन---फ़ऊलुन--फ़ऊलुन---फ़ऊलुन
बह्र-ए- मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम
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ग़ज़ल 027 : ओके
फ़ऊलुन---फ़ऊलुन--फ़ऊलुन---फ़ऊलुन
बह्र-ए- मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम
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ग़ज़ल 027 : ओके
दयार-ए-ग़रीबां में क्या ढूँढता हूँ ?
ग़रीबुलवतन की नवा ढूँढता हूँ !
सियासत में फ़िरक़ापरस्ती हो जाइज़
वहाँ किस मरज़ की दवा ढूँढता हूँ ?
जो शोलों को भड़का के तहरीक कर दे
वही इन्क़िलाबी हवा ढूँढता हूँ
इक आवाज़ आती पलट कर ख़ला से
उसी में तुम्हारी सदा ढूँढता हूँ
कभी ख़ुद से ख़ुद की मुलाक़ात होगी
मैं बाहर भला क्यों ख़ुदा ढूँढता हूँ
वो मेरी नज़र में वफ़ा ढूँढते हैं
मैं उनकी नज़र में हया ढूँढता हूँ
गिरिफ़्तार-ए-ग़म हूँ मै इतना कि "आनन"
मैं अपने ही घर का पता ढूँढता हूँ
दयार-ए-ग़रीबां = ग़रीबों की बस्ती में
ग़रीबुलवतन = अपना देश छोड़ कर परदेश में बसे लोग
नवा =आवाज़
तहरीक =आन्दोलन
ख़ला = शून्य आकाश से
[सं -03-06-18]
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