शनिवार, 18 मई 2019

ग़ज़ल 121 [07 A] : सपने हैं रखे गिरवी

           221--  --1222           //221--      1222
       मफ़ऊलु--मफ़ाईलुन    // मफ़ऊलु---मफ़ाईलुन

ग़ज़ल 121[07 A]  :  सपनों हैं रखे गिरवी--


सपने हैं रखे गिरवी, साँसों पे उधारी है
 क़िस्तों में सदा हमने, यह उम्र  गुज़ारी  है

 
हर सुब्ह रहे ज़िन्दा, हर शाम रहे मरते
 
जितनी है मिली क़िस्मत, उतनी ही हमारी है

 
अबतक है कटी जैसे, बाक़ी भी कटे वैसे
 
सदचाक रही हस्ती, हर बार सँवारी  है

 
जब से है उन्हें देखा, मदहोश हुआ हूँ, मैं
 
उतरा न नशा अबतक, कैसी ये ख़ुमारी  है

 
दावा तो नहीं करता, पर झूठ नहीं यह भी
 
जब प्यार न हो दिल में, हर शख़्स भिखारी है

 
देखा तो नहीं उसको, सब उसकी नज़र में हैं
 
जो सबको नचाता है, वह कौन मदारी  है ?

 
जैसा भी रहे मौसम, बिन्दास जिओ, ’आनन’
 
दिन और बचे कितने, उठने को सवारी है ।


 -आनन्द.पाठक-

[सं 18-05-19]

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