ग़ज़ल 213 [ 15 A]
221---2121---1221---212
वह
बार बार काठ की हंडी
चढ़ा रहा है
क्या
क्या न राजनीति में खिचड़ी पका रहा है
पाँवों
तले ज़मीन तो कब की खिसक चुकी है
जाने
वो अपने पाँव पे कैसे टिका रहा है ?
जुमलों
के जाल बुन रहा था पाँच साल से वो
आया
है अब चुनाव तो ’वोटर’ फँसा रहा है
थाना
है उसके हाथ में, आदिल
भी जेब में रख
क़ानून
की किताब का तकिया लगा रहा है
भारत
का ’संविधान’ तो ’बुधना’ के वास्ते है
ख़ुद
ही वह ’संविधान’ है, सबको बता रहा है
इक
पाँव कठघरे में हैं ,इक
पाँव जेल में भी
लीडर
नया है , क़ौम को रस्ता दिखा रहा है
’दिल्ली’ पहुँच गया तो निगाहें बदल गईं हैं
’आनन’ चुनाव बाद तू किसको बुला रहा है ।
-आनन्द.पाठक-
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