शुक्रवार, 2 जुलाई 2010

ग़ज़ल 015 : ग़म-ए-दौराँ से.....

मफ़ाईलुन--मफ़ाईलुन--फ़ऊलुन
1222--------1222------122
बह्र-ए-हज़ज मुसद्दस सालिम महज़ूफ़
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ग़ज़ल 015 : ग़म-ए-दौराँ से .....ओके

ग़म-ए-दौराँ से मेरा सिलसिला है
तुझे ऐ ज़िन्दगी ! फिर क्या गिला है?

वो जिनके इश्क़ में दिल मुब्तिला है
वो ही पूछें " मुहब्बत क्या बला है "?

तुम्हारे हुस्न का ही यह असर है
कि दिल में इश्क़ का गुंचा खिला है ।

 मेरे सर से तुम्हारी आस्ताँ तक
तुम्हीं कह दो कि कितना फ़ासला है ?

तेरी जानिब से तूफ़ान-ए-जफ़ा हैं
मेरी जानिब चिराग़-ए-हौसला है

नज़र आती नहीं मंज़िल कहीं भी
अजब ये ज़िन्दगी का क़ाफ़िला है?

हमें दुनिया से क्या लेना है "आनन"!
हमें तुम मिल गए , सब कुछ मिला है

-आनन्द.पाठक-



3 टिप्‍पणियां:

Dr. Zakir Ali Rajnish ने कहा…

गजल तो शानदार है, लेकिन कितनी जगह पढवाएंगे हुजूर?
………….
दिव्य शक्ति द्वारा उड़ने की कला।
किसने कहा पढ़े-लिखे ज़्यादा समझदार होते हैं?

समय चक्र ने कहा…

नज़र आती नहीं मंज़िल कहीं भी
अजब ये ज़िन्दगी का क़ाफ़िला है ?

बहुत बढ़िया गजल...वाह

समय चक्र ने कहा…

नज़र आती नहीं मंज़िल कहीं भी
अजब ये ज़िन्दगी का क़ाफ़िला है ?

बहुत बढ़िया गजल...वाह