एक ग़ज़ल 123 [10 A]
मफ़ऊलु--मफ़ाईलुन // मफ़ऊलु---मफ़ाईलुन
221--1222 // 221---1222
एक ग़ज़ल : साज़िश थी अमीरों की--
-आनन्द.पाठक-
[सं 30-06-19]
मफ़ऊलु--मफ़ाईलुन // मफ़ऊलु---मफ़ाईलुन
221--1222 // 221---1222
एक ग़ज़ल : साज़िश थी अमीरों की--
साज़िश थी अमीरों की, “फाइल” में दबी होगी
दो-चार
मरें होंगे, ’कार’ उनकी चढ़ी
होगी
’साहब’ की हवेली है, सरकार भी ताबे’ में
इक बार
गई ’छमिया’, लौटी न कभी होगी
आँखों
का मरा पानी, तू भी तो मरा होगा
आँगन
में तेरे जिस दिन, ’तुलसी’ जो जली होगी
पैसों
की गवाही से, क़ानून खरीदेंगे
इन्साफ़
की आँखों पर, पट्टी जो बँधी होगी
इतना
ही समझ लेना ,कल ’ताज’ नहीं होगा
मिट्टी
से बने तन पर, कुछ ख़ाक पड़ी होगी
मौला
तो नहीं हो तुम, मैं भी न फ़रिश्ता हूँ
इन्सान
हैं हम दोनों, दोनों में कमी होगी
गमलों
की उपज वाले, यह बात न समझेंगे
’आनन’ ने कहा सच है, तो बात लगी होगी
-आनन्द.पाठक-
[सं 30-06-19]
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें