बुधवार, 26 जून 2019

ग़ज़ल 124[12 A] : सलामत पाँव हैं जिनके--

ग़ज़ल 124[12 A]

1222---1222---1222---122
मफ़ाईलुन---मफ़ाईलुन--मफ़ाईलुन---फ़ऊलुन


सलामत पाँव है जिनके, वो कन्धों पर टिके हैं
जो चल सकते हैं अपने दम, अपाहिज से दिखे हैं


कि जिनके कद से भी ऊँचे "कट-आउट’ शहर में थे
जो भीतर झाँक कर देखा, बहुत नीचे गिरे हैं

बुलन्दी आप की माना कि सर चढ़  बोलती  है
मगर ये क्या कि हम सब आप को बौने  दिखे हैं

ये "टुकड़े गैंग" वाले हैं फ़क़त मोहरे किसी के
सियासी चाल है जिनकी वो पर्दे में छुपे  हैं

कहीं नफ़रत, कहीं दंगा ,कहीं फ़ित्ना, हवादिस
मुहब्बत के चराग़ों को बुझाने  पर अड़े  हैं

हमारे साथ जो भी थे चले पहुँचे कहाँ तक
यही हम सोचते अब तक, कहाँ पर हम रुके हैं

धुले हैं दूध के कहते हैं जो ख़ुद को हमेशा

वही तो लोग ’आनन’ चन्द सिक्कों मे बिके हैं।



 -आनन्द.पाठक-

[सं 30-06-19]

2 टिप्‍पणियां:

डॉ. दिलबागसिंह विर्क ने कहा…

आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 27.6.19 को चर्चा मंच पर चर्चा - 3379 में दिया जाएगा

धन्यवाद

सु-मन (Suman Kapoor) ने कहा…

सुंदर