ग़ज़ल 448 [22-जी] : तुम्हारे झूठ का हम ऎतबार क्या करते--
तुम्हारे झूठ का हम ऐतबार क्या करते
कहोगे सच न जो तुम, इन्तज़ार क्या करते।
हमारी बात न सुनना, न दर्द ही सुनना ,
गुहार आप से हम बार बार क्या करते।
ज़ुबान दे के भी तुमको मुकर ही जाना है
तुम्ही बता दो कि तुमसे क़रार क्या करते।
वो साज़िशों में ही दिन रात मुब्तिला रहता,
बना के अपना उसे राज़दार क्या करते ।
हज़ार बार बताए उन्हें न वो समझे ,
न उनको ख़ुद पे रहा इख्तियार क्या करते।
लगा के बैठ गए दाग़ खुद ही दामन पर
यही खयाल चुभा बार बार, क्या करते ।
मक़ाम सब का यहाँ एक ही है जब 'आनन'
दिल.ए.ग़रीब को हम सोगवार क्या करते ।
-आनन्द पाठक ’आनन’
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