शनिवार, 8 जनवरी 2022

ग़ज़ल 204 [ 06A] : ख़ामोश रहे कल तक--मुठ्ठी न भिंची उनकी

ग़ज़ल 204 [06A] 

221--1222  // 221-1222

06

 

ख़ामोश रहे कल तक, मुठ्ठी न भिंची उनकी

आवाज़ उठाए अब, बस्ती जो जली उनकी  

                             

बच बच के निकलते हैं, मिलने से भी कतराते

मेरी ही तो चाहत मेहर रात कटी उनकी       

 

जाने वो ग़लत थे या, थी मेरी ग़लतफ़हमी

जो नाज़ उठाते थे, क्यों बात लगी उनकी  

 

कश्ती भी वहीं डूबी, जब पास किनारे थे

जो साथ चढ़े सच के, लाशें न मिली उनकी       

 

साज़िश थीं हवाओं की, मौसम के इशारे थे

जब राज़ खुला उनका, हर बात खुली उनकी 

 

बातें वो करें ऊँची, पर सोच में बौने हैं

हर मोड़ पे बिकते हैं, ग़ैरत न बची उनकी 

                       

आनन’ तू सभी पर यूँ, इतना न भरोसा कर

लगती हो भले तुझको, हर बात भली उनकी

 

 


-आनन्द. पाठक-


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