ग़ज़ल 211[17 A]
2212----1212---1212--1212
बह्र-ए-रजज़ मुसम्मन सालिम मख्बून
दो
चार-गाम रह गया था मंज़िलों का फ़ासिला
गुमराह
कर दिया है मेरे राहबर ने क़ाफ़िला
उम्मीद
रहबरी से थी. यक़ीन जिस पे था मुझे
झूठे
सपन दिखा दिखा के रहजनों से जा मिला
कुछ
हादिसों से सामना है, साजिशे हैं वक़्त की
कुछ इस
तरह से चल रहा है ज़िन्दगी का सिलसिला
कुछ
प्रश्न यक्ष के रहे, सवाल
ज़िन्दगी के भी
लेकिन
जवाब आदमी को कब कहाँ सही मिला
दो-चार
साँस मर गया तो एक साँस जी सका
दो-चार
दिन ख़ुशी के थे फिर आँसुओं का सिलसिला
फ़ुरसत
कभी मिली नहीं कि खुद से ख़ुद मैं मिल सकूँ
तेरे
ख़याल-ओ-ख़्वाब में ही दिल रहा था मुबतिला
दुनिया
हसीन है, अगर तू प्यार की नज़र से देख
’आनन’ कभी किसी के दिल में फूल प्यार का खिला
-आनन्द.पाठक-
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