ग़ज़ल 207[20 A]
2122---2122--2122--212
आदमी
में ’आदमीयत’ अब नहीं आती नज़र
एक
ज़िन्दा लाश बन करने लगा है तय सफ़र
और
के कंधों पे चढ़ कर जब से वो चलने लगा
वह
बताने में लगा है यह नया उसका हुनर
वह
चला था गाँव से सर पर उठाए ’संविधान
’राजपथ’ पर लुट गया, बनती
नहीं कोई ख़बर
आज
के इस दौर में सुनता है कब कोई किसे
मसअ’ले
सबके हैं अपने, सबकी अपनी रहगुज़र
लोग
तो बहरे नहीं थे, और
गूँगे भी नहीं
क्यों
सितम पर चुप रहे, क्यों बेज़ुबाँ थे, बेअसर
छोड़िए
अब क्या रखा है आप के ’अनुदान’ में
आप
ही के सामने जब मर गया लख़्त-ए-जिगर
लाख हों
तारीक़ियाँ ’आनन’ तुम्हारे सामने
हौसला
रखना ज़रा ,बस होने वाली है सहर
-आनन्द.पाठक-
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