शुक्रवार, 28 जनवरी 2022

ग़ज़ल 210[ : हर सिम्त धुआँ उठता ,वह आग उगलता है

 ग़ज़ल 210 [57] 


221---1222  // 221--1222


हर सिम्त धुआँ उठता , वह आग उगलता है

मौक़े के मुताबिक ही. वह रंग बदलता है


हर बार चुनावों में , वादों की हैं सौगातें

फिर बाद चुनावों के, मुँह फेर के चलता है


मज़लूम के आँसू हैं , आवाज़ नहीं होती

हर बूँद की गरमी से, पत्थर भी पिघलता है


जब जान रहा हैं तू , वादों की हक़ीक़त क्या

फेंके हुए सिक्कों पर, क्यों पाँव फिसलता है


है काम यही उनका, वो जाल बिछाते हैं

हर बार है क्यूँ फँसता ,तू क्यों न सँभलता है


यह देश चमन मेरा ज़रख़ेज़ ज़मीं इसकी, 

नफ़रत न उगा इसमे , बस प्यार ही फलता है


’आनन’ यह सियासत है, या शौक़ कि मजबूरी

वह सेंक रहा रोटी , घर और का जलता है 


-आनन्द.पाठक-



कोई टिप्पणी नहीं: