ग़ज़ल 34 [37]
महल की बुनियाद अब हिलने लगी है
भीड़ सड़कों पर उतर बढ़ने लगी है
गोलियों से मत इन्हें समझाइएगा
पेट की है आग अब जलने लगी है
जब कभी इतिहास ने करवट लिया है
फिर नदी तट छोड़ कर बहने लगी है
वक़्त रहते रुख हवा का मोड़ना है
साँस में बारूद अब भरने लगी है
आदमी के लाश की पहचान अब तो
जातियों के नाम से होने लगी है
ये भला साजिश नहीं तो और क्या है !
सच की बोलो तो सज़ा मिलने लगी है
घर की दीवार या ’बर्लिन’ की ’आनन’
जब बढ़ा है प्यार तो ढहने लगी है
आनन्द.पाठक
09413395592
महल की बुनियाद अब हिलने लगी है
भीड़ सड़कों पर उतर बढ़ने लगी है
गोलियों से मत इन्हें समझाइएगा
पेट की है आग अब जलने लगी है
जब कभी इतिहास ने करवट लिया है
फिर नदी तट छोड़ कर बहने लगी है
वक़्त रहते रुख हवा का मोड़ना है
साँस में बारूद अब भरने लगी है
आदमी के लाश की पहचान अब तो
जातियों के नाम से होने लगी है
ये भला साजिश नहीं तो और क्या है !
सच की बोलो तो सज़ा मिलने लगी है
घर की दीवार या ’बर्लिन’ की ’आनन’
जब बढ़ा है प्यार तो ढहने लगी है
आनन्द.पाठक
09413395592
2 टिप्पणियां:
वाह ... बहुत ही खूबसूरत गज़ल ... हर शेर काबिले तारीफ ... वाह वाह निकलती है ...
अच्छी गज़ल
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