ग़ज़ल 34 [37 A]
2122---2122---212
राजशाही जब कभी छलने लगी
भीड़ सड़कों पर उतर चलने लगी
गोलियों से मत इन्हे समझाइए-
पेट की है आग अब जलने लगी
लोग अपनों से करे हैं दुश्मनी
या ख़ुदा कैसी हवा चलने लगी ।
क्या रहा हासिल तुम्हारी दौड़ का
देख लेना , शाम अब ढलने लगी ।
बढ़ गई रिश्तों में जब जब गरमियाँ
बर्फ़-सी दीवार थी, गलने लगी ।
झूठ की ’गारंटियाँ’ देने लगे
तब सियासत फूलने-फ़लने लगी ।
दौर-ए-हाज़िर को कहूँ ’आनन’ मैं क्या
सोच कैसी नफ़रती पलने लगी ।
-आनन्द.पाठक-
2 टिप्पणियां:
वाह ... बहुत ही खूबसूरत गज़ल ... हर शेर काबिले तारीफ ... वाह वाह निकलती है ...
अच्छी गज़ल
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