रविवार, 5 अगस्त 2012

एक ग़ज़ल 34 [37 A]: राजशाही जब कभी छलने लगी

ग़ज़ल 34 [37 A]

2122---2122---212

राजशाही जब कभी छलने लगी 
भीड़ सड़कों पर उतर चलने लगी 

गोलियों से मत इन्हे समझाइए-
पेट की है आग अब जलने लगी 

लोग अपनों से करे हैं दुश्मनी 
या ख़ुदा कैसी हवा चलने लगी  ।

क्या रहा हासिल तुम्हारी दौड़ का
देख लेना , शाम अब ढलने लगी ।

बढ़ गई रिश्तों में जब जब गरमियाँ
बर्फ़-सी दीवार थी, गलने लगी ।

झूठ की ’गारंटियाँ’ देने लगे 
तब सियासत फूलने-फ़लने लगी ।

दौर-ए-हाज़िर को कहूँ ’आनन’ मैं क्या
सोच कैसी नफ़रती पलने लगी ।

-आनन्द.पाठक- 






2 टिप्‍पणियां:

दिगम्बर नासवा ने कहा…

वाह ... बहुत ही खूबसूरत गज़ल ... हर शेर काबिले तारीफ ... वाह वाह निकलती है ...

Unknown ने कहा…

अच्छी गज़ल