गुरुवार, 17 जुलाई 2014

चन्द माहिया : क़िस्त 04

:01:
मत काटो शाख़-ए-शजर
लौटेंगे थक कर
इक शाम परिन्दे घर

:02:

मैं मस्त कलन्दर हूँ
बाहर से क़तरा
भीतर से समन्दर हूँ

:03:

ये किसकी राहगुज़र ?
झुक जाता है सर
सजदे में यहाँ  आकर

:04:

सौ ख़्वाब ख़यालों में
जब तक है पर्दा
उलझा हूँ सवालों  में 

:05:

दुनिया ने ठुकराया 
और कहाँ जाता
मयखाने चला आया


-आनन्द.पाठक-
[सं 21-10-20]

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