क़िस्त 18
1
क्यों मन से हारा है ,
कब मिलता सब को
हर बार किनारा है ?
2
इक दर्द उभरता है,
ख़्वाब-ओ-ख़यालों में
वो जब भी उतरता है।
3
कल मेरे बयां
होंगे,
मैं न रहूँ शायद,
पर मेरे निशां
होंगे।
4
आए वो नहीं अबतक,
ढूँढ रहीं आँखें,
हर शाम ढलूँ
कबतक ?
5
महकी ये हवाएँ
हैं,
उनके आने की
शायद ये सदाएँ हैं।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें