एक ग़ज़ल 91 :
212---212---212---212-// 212---212---212---212
दिल न रोशन हुआ-----
दिल न रोशन हुआ ,लौ लगी भी नही, फिर इबादत का ये सिलसिला किस लिए ?
फिर ये चन्दन ,ये टीका,जबीं पे निशां और तस्बीह, मनका लिया किसलिए ?
सब को मालूम है तेरे घर का पता ,हो कि पण्डित पुजारी ,मुअल्लिम कोई.
तू मिला ही नहीं लापता आज तक ,ढूँढने का अलग है मज़ा किस लिए ?
निकहत-ए-ज़ुल्फ़ जाने कहाँ तक गईं ,लोग आने लगे बदगुमां हो इधर,
यार मेरा अभी तक तो आया नहीं ,दिल है राह-ए-वफ़ा में खड़ा किस लिए ?
तिश्नगी सब की होती है इक सी सनम,क्या शज़र ,क्या बसर,क्या है धरती चमन,
प्यास ही जब नहीं बुझ सकी आजतक,फिर ये ज़ुल्फ़ों की काली घटा किस लिए ?
बज़्म में सब तुम्हारे रहे आशना . एक मैं ही रहा अजनबी की तरह ,
वक़्त-ए-रुखसत निगाहें थीं नम हो गईं,फिर वो दस्त-ए-दुआ था उठा किस लिए ?
माल-ओ-ज़र ,कुछ अना, कुछ रही कजरवी, जाल तुमने बुना क़ैद भी ख़ुद रहा,
फिर रिहाई का क्यूँ अब तलबगार है ,दाम-ए हिर्स-ओ-हवस था बुना किस लिए ?
212---212---212---212-// 212---212---212---212
दिल न रोशन हुआ-----
दिल न रोशन हुआ ,लौ लगी भी नही, फिर इबादत का ये सिलसिला किस लिए ?
फिर ये चन्दन ,ये टीका,जबीं पे निशां और तस्बीह, मनका लिया किसलिए ?
सब को मालूम है तेरे घर का पता ,हो कि पण्डित पुजारी ,मुअल्लिम कोई.
तू मिला ही नहीं लापता आज तक ,ढूँढने का अलग है मज़ा किस लिए ?
निकहत-ए-ज़ुल्फ़ जाने कहाँ तक गईं ,लोग आने लगे बदगुमां हो इधर,
यार मेरा अभी तक तो आया नहीं ,दिल है राह-ए-वफ़ा में खड़ा किस लिए ?
तिश्नगी सब की होती है इक सी सनम,क्या शज़र ,क्या बसर,क्या है धरती चमन,
प्यास ही जब नहीं बुझ सकी आजतक,फिर ये ज़ुल्फ़ों की काली घटा किस लिए ?
बज़्म में सब तुम्हारे रहे आशना . एक मैं ही रहा अजनबी की तरह ,
वक़्त-ए-रुखसत निगाहें थीं नम हो गईं,फिर वो दस्त-ए-दुआ था उठा किस लिए ?
माल-ओ-ज़र ,कुछ अना, कुछ रही कजरवी, जाल तुमने बुना क़ैद भी ख़ुद रहा,
फिर रिहाई का क्यूँ अब तलबगार है ,दाम-ए हिर्स-ओ-हवस था बुना किस लिए ?
लोग किरदार अपना निभा कर गए, लौट कर उनको आना दुबारा नहीं
कौन है ख़ाक में जो मिला हो नहीं , फिर तू ’आनन’ अबस तो रहा किस लिए ?
-आनन्द.पाठक-
08800927181
शब्दार्थ
तस्बीह = जप माला
मुअल्लिम= अध्यापक
निकहत-ए-ज़ुल्फ़= बालों की महक
तिशनगी = प्यास
वक़्त-ए-रुखसत = जुदाई के समय
माल-ओ-ज़र = धन सम्पति
अना = अहम
कजरवी =अत्याचार अनीति जुल्म
दाम-ए-हिर्स-ओ-हवस = लोभ लालच लिप्सा के जाल
2 टिप्पणियां:
बहुत ही उम्दा ! लेखन ,सधी व सुन्दर भाव बहुत ख़ूब ! सुन्दर रचना आदरणीय आभार "एकलव्य"
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (19-07-2017) को "ब्लॉगरों की खबरें" (चर्चा अंक 2671) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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