अनुभूतियाँ 181/68
721
बार बार क्या कहना है अब
समझाना तुमको मुश्किल है
अपनी ज़िद में दिल ये तुम्हारा
सच सुनने के नाक़ाबिल है ।
अनुभूतियाँ 181/68
721
बार बार क्या कहना है अब
समझाना तुमको मुश्किल है
अपनी ज़िद में दिल ये तुम्हारा
सच सुनने के नाक़ाबिल है ।
ग़ज़ल 438 [ 12-]
1222---1222---1222---122
हमारी दास्ताँ में ही तुम्हारी दास्ताँ है
हमारी ग़म बयानी में तुम्हारा ग़म बयाँ है ।
गुजरने को गुज़र जाता समय चाहे भी जैसा हो
मगर हर बार दिल पर छोड़ जाता इक निशाँ है ।
सभी को देखता है वह हिक़ारत की नज़र से
अना में मुबतिला है आजकल वो बदगुमाँ है ।
मिटाना जब नहीं हस्ती मुहब्बत की गली में
तो क्यों आते हो इस जानिब अगर दिल नातवाँ है।
जो आया है उसे जाना ही होगा एक दिन तो
यहाँ पर कौन है ऐसा जो उम्र-ए-जाविदाँ है ।
सभी हैं वक़्त के मारे, सभी हैं ग़मजदा भी
मगर उम्मीद की दुनिया अभी क़ायम जवाँ है।
जमाने भर का दर्द-ओ-ग़म लिए फिरते हो ’आनन’
तुम्हारा खुद का दर्द-ओ-ग़म कही क्या कम गिराँ है।
-आनन्द पाठक-
कम गिराँ है = कम भारी है, कम बोझिल है
ग़ज़ल 437 [11-G]
212---212---212---212
यार मेरा कहीं बेवफ़ा तो नहीं
ऐसा मुझको अभी तक लगा तो नहीं
कत्ल मेरा हुआ, जाने कैसे किया ,
हाथ में उसके ख़ंज़र दिखा तो नहीं
बेरुख़ी, बेनियाज़ी, तुम्हारी अदा
ये मुहब्बत है कोई सज़ा तो नहीं
तुम को क्या हो गया, क्यूँ खफा हो गई
मैने तुम से अभी कुछ कहा तो नहीं
रंग चेहरे का उड़ने लगा क्यों अभी
राज़ अबतक तुम्हारा खुला तो नहीं
लाख कोशिश तुम्हारी शुरू से रही
सच दबा ही रहे, पर दबा तो नहीं ।
वक़्त सुनता है ’आनन’ किसी की कहाँ
जैसा चाहा था तुमने, हुआ तो नहीं ।
-आनन्द.पाठक-
इस ग़ज़ल को आ0 विनोद कुमार उपाध्याय जी [ लखनऊ] की आवाज़ में सुनें
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