ग़ज़ल : 443 [17-जी]
122---122---122---122
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ग़ज़ल हूँ किसी का मैं हर्फ़-ए-वफ़ा हूँ ।
किसी के मिलन की, विरह की कथा हूँ ।
तवारीख़ में हर ग़ज़ल की गवाही
मैं हर दौर का इक सफ़ी आइना हूँ ।
कभी ’हीर’ राँझा’ की बन कर कहानी
किसी की तड़पती हुई मैं सदा हूँ ।
कभी जंग में जब ये उलझी हो दुनिया
मुहब्बत के पैग़ाम का मैं पता हूँ ।
कभी ’मीर’ ग़ालिब’ , कभी दाग़, मोमिन
उन्हीं की मै ख़ुशबू का इक सिलसिला हूँ ।
ख़याल-ए-सुख़न हूँ निहाँ हर ग़ज़ल में
ग़ज़लगो, सुख़नदाँ का मैं आशना हूँ ।
ज़माने का ग़म हो कि ग़म यार का हो
हक़ीक़त बयानी की तर्ज़-ए-अदा हूँ ।
ग़ज़ल हूँ , अदब की रवायत हूँ ’आनन’
ज़माने की आवाज़ का तरज़ुमा हूँ ।
-आनन्द.पाठक-