मफ़ऊलु--मफ़ाईलुन // मफ़ऊलु--मफ़ाईलुन
221-----------1222 //221------------1222
बह्र-ए-हज़ज मुसम्मन अख़रब मकफ़ूफ़ ,मक्फ़ूफ़ मुख़्ख़निक सालिम अल आख़िर
एक ग़ज़ल - 008[18 A]-ओके
221-----------1222 //221------------1222
बह्र-ए-हज़ज मुसम्मन अख़रब मकफ़ूफ़ ,मक्फ़ूफ़ मुख़्ख़निक सालिम अल आख़िर
एक ग़ज़ल - 008[18 A]-ओके
ईमान कहाँ देखा, इरफ़ान1 कहाँ देखा
गो,
शहर बहुत देखे, इंसान
कहाँ देखा !
-आनन्द.पाठक-
अबतक जो मिले मुझसे, थे
दर्द भरे चेहरे
’उपमेय’ बहुत देखे,’ ’उपमान’
कहाँ देखा !
गमलों की उपज वाले, माटी
से कटे थे लोग
गो, नाम बहुत ऊँचे, ईमान
कहाँ देखा !
हँसने की प्रतीक्षा में, क्या
क्या न सहे मैने
अभिशाप बहुत ढोए, वरदान
कहाँ देखा !
माथे पे शिकन देखे, पत्थर
की तरह चेहरे ,
आँखों में व्यथा ठहरी, अवसान
कहाँ देखा !
अमरित की प्रतिष्ठा में ,आचरण
बहुत देखे
शंकर की तरह लेकिन, विषपान
कहाँ देखा !
दरया का समन्दर तक, जीवन
का सफ़र ’आनन’
उलझन से भरा
रस्ता, आसान कहाँ देखा !
-आनन्द.पाठक-
3 टिप्पणियां:
अमृत की प्रतिष्ठा में आचरण बहुत देखे
शंकर की तरह लेकिन विषपान कहाँ देखा !
behatareen abhivyakti.
आ० योगेश जी
सराहना के लिए धन्यवाद
सादर
-आनन्द.पाठक
बहुत सुन्दर रचना है।बधाई स्वीकारें।
अमृत की प्रतिष्ठा में आचरण बहुत देखे
शंकर की तरह लेकिन विषपान कहाँ देखा !
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