शनिवार, 19 दिसंबर 2009

एक ग़ज़ल 008 [18 A]: ईमान कहाँ देखा .....!

मफ़ऊलु--मफ़ाईलुन // मफ़ऊलु--मफ़ाईलुन
221-----------1222 //221------------1222 
बह्र-ए-हज़ज मुसम्मन अख़रब मकफ़ूफ़ ,मक्फ़ूफ़ मुख़्ख़निक सालिम अल आख़िर 

एक ग़ज़ल - 008[18 A]-ओके


ईमान कहाँ देखा, इरफ़ान1 कहाँ देखा
गो, शहर बहुत देखे, इंसान कहाँ देखा !


अबतक जो मिले मुझसे, थे दर्द भरे चेहरे
’उपमेय’ बहुत देखे,’ ’उपमान’ कहाँ देखा !

गमलों की उपज वाले, माटी से कटे थे लोग
गो, नाम बहुत ऊँचे, ईमान कहाँ देखा !

हँसने की प्रतीक्षा में, क्या क्या न सहे मैने
अभिशाप बहुत ढोए, वरदान कहाँ देखा !

माथे पे शिकन देखे, पत्थर की तरह चेहरे ,
आँखों में व्यथा ठहरी, अवसान कहाँ देखा !

अमरित की प्रतिष्ठा में ,आचरण बहुत देखे
शंकर की तरह लेकिन, विषपान कहाँ देखा !

दरया का समन्दर तक, जीवन का सफ़र ’आनन’
उलझन से  भरा रस्ता, आसान कहाँ देखा !




-आनन्द.पाठक-





3 टिप्‍पणियां:

Yogesh Verma Swapn ने कहा…

अमृत की प्रतिष्ठा में आचरण बहुत देखे

शंकर की तरह लेकिन विषपान कहाँ देखा !

behatareen abhivyakti.

आनन्द पाठक ने कहा…

आ० योगेश जी
सराहना के लिए धन्यवाद
सादर
-आनन्द.पाठक

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

बहुत सुन्दर रचना है।बधाई स्वीकारें।

अमृत की प्रतिष्ठा में आचरण बहुत देखे
शंकर की तरह लेकिन विषपान कहाँ देखा !