गुरुवार, 7 जून 2012

एक ग़ज़ल 031[ 20-ब/60-अ] : ऐसी भी हो ख़बर... ..

ग़ज़ल 031 [ 20-ब/60-अ]ओके

[ नोट : यही ग़ज़ल भूल वश -"अभी संभावना है"- में भी संकलित  है - 60 -A [ग़ज़ल -378]
अत: यह ग़ज़ल तदनुसार यहाँ भी संशोधित कर दी गई है ।

221--2121--1221--212

ऐसी भी हो ख़बर किसी अख़बार में छपा

’कलियुग’ से पूछता कोई ’सतयुग’ का हो पता ।

 

समझा करेंगे लोग उसे एक सरफिरा ,

कल इक शरीफ़ आदमी था रात में दिखा ।

 

बेमौत एक दिन वो मरेगा मेरी तरह

इस शहर में ’उसूल’ की गठरी उठा उठा।

 

जब से ख़रीद-बेच की दुनिया ये हो गई,

मुशकिल है आदमी को कि अपने को ले बचा।

 

हर सिम्त शोर है मचा जंग-ए-अज़ीम का ,

इन्सानियत पे गाज़ गिरेगी, इसे बचा ।

 

मासूम दिल के साफ़ थे तो क़ैद मे रहे

अब हैं नक़ाबपोश , जमानत पे हैं रिहा ।

 

क्यों तस्करों के गाँव में ’आनन’ तू आ गया,

तुझ पर हँसेंगे लोग अँगूठे दिखा दिखा ।



-आनन्द.पाठक


2 टिप्‍पणियां:

आनन्द पाठक ने कहा…

आ0 शास्त्री जी
रचना को ’चर्चा मंच ’में शामिल करने के लिए आप का बहुत-बहुत धन्यवाद
सादर
आनन्द.पाठक
09413395592

आनन्द पाठक ने कहा…

आ0 शास्त्री जी
रचना को ’चर्चा मंच ’में शामिल करने के लिए आप का बहुत-बहुत धन्यवाद
सादर
आनन्द.पाठक
09413395592