ग़ज़ल 449[23-जी] : ग़रज़ थी उनकी --
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ग़रज़ थी उनकी, उन्हे जब मेरी ज़रूरत थी
हर एक बात में उनकी, भरी हलावत थी ।
हर एक बात में उनकी, भरी हलावत थी ।
चलो कि लौट चलें फिर से अपनी दुनिया में
जहाँ सुकून था, इमान था, मुहब्बत थी ।
झुका के सर जो हुकूमत के साथ बैठा है
नफ़स नफ़स में भरी कल तलक बग़ावत थी।
मिला दिया है ज़माने ने ख़ाक में उसको
सुना है उसको भी सच बोलने की आदत थी ।
वही हुए हैं ख़फ़ा, दूर बेसबब मुझसे
ख़याल.ओ.ख़्वाब में जिनसे मेरी क़राबत थी।
नई हवा का असर, वो ज़ुबान से पलटे
नई हवा का असर, वो ज़ुबान से पलटे
ज़ुबान जिनकी कभी लाज़िमी जमानत थी।
तुम्हारे दौर में इनसानियत कहाँ ’आनन’
वो दौर और था, लोगों में जब शराफ़त थी ।
-आनन्द.पाठक ’आनन’
-आनन्द.पाठक ’आनन’