मंगलवार, 5 जुलाई 2011

ग़ज़ल 023 [16] : आते नहीं हैं मुझ को.....

बह्र-ए-मुज़ारि’अ मुसम्मन अख़रब
मफ़ऊलु--फ़ाइलातुन // मफ़ऊलु-- फ़ाइलातुन
221---2122--// 221----2122
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ग़ज़ल 023[16]: आते नहीं हैं मुझ को.....ओके

आते नहीं हैं मुझ को ,ये राज़-ए-दिल छुपाने
इज़हार-ए-आशिक़ी के, ढूंढे हैं सौ बहाने

क्या क्या न था सुनाना ,क्या क्या लगे सुनाने
जब सामने वो आए. होश आ गए ठिकाने

नाज़-ओ-ग़रूर इतना , गर हुस्न पे है तुझको
मुझको भी इश्क़ का इक, तुहफ़ा दिया ख़ुदा ने

कुछ तो ज़रूर होगा , इस मैक़दे में , ज़ाहिद !
जो तू भी आ गया है , यां पर किसी बहाने

कहने में आ गये हैं  ,वो दुश्मनों की शायद
लो, आ रहे हैं देखो !, फिर से हमें सताने

हर्फ़-ए-वफ़ा से वाक़िफ़ ,जो आज तक नही हैं
महफ़िल में आ गए हैं ,मा’नी हमें बताने

राह-ए-तलाश-ए-हक़ में इक उम्र कटी "आनन"
इक आग सी लगा दी ,किस ग़ैब की निदा ने ?

---आनन्द पाठक-




2 टिप्‍पणियां:

Sunil Kumar ने कहा…

बहुत खुबसूरत ग़ज़ल मुबारक हो...

शारदा अरोरा ने कहा…

vaah vaah , behad khoobsoorat gazal ...padh kar daad dene ko jee chahe ...