शुक्रवार, 1 जून 2012

एक ग़ज़ल 030[37] : लोग अपनी ही सुनाने में.....

ग़ज़ल 030 =ओके

2122----2122----2122
फ़ाइलातुन---फ़ाइलातुन---फ़ाइलातुन
बह्र-ए-रमल मुसद्द्स सालिम
-----------------------

लोग अपने ग़म सुनाने में लगे हैं
और हम हैं ग़म भुलाने में लगे हैं

बेसबब लगते हैं उनको ज़ख़्म मेरे
वो ख़राश-ए-कफ़ दिखाने में लगे हैं

जानता हूँ आप की साहिब हक़ीक़त
कौन सा चेहरा चढ़ाने में लगे हैं ?

आप ्है  सच के धुले लगते भला कब
फिर बहाने क्यों बनाने में लगे हैं ?

 लोग तो चलते नहीं हैं जाग कर भी
आप क्यों मुर्दे जगाने में लगे हैं ।

सच की बातों का ज़माना लद गया
झूट की जय जय मनाने में लगे हैं

लाश गिन गिन कर हवादिस में वो,"आनन’
’वोट’ की कीमत लगाने में लगे हैं



-आनन्द-
्ख़राश-ए-कफ़ = हथेली की खरोंच


ख़राश-ए-कफ़ =हथेली की खरोंच

हवादिस = हादिसा का बहुवचन

3 टिप्‍पणियां:

Yogesh Verma Swapn ने कहा…

wah.

मेरा मन पंछी सा ने कहा…

सच की बातों का ज़माना लद गया
झूट की जय जय मनाने में लगे हैं
लाश गिन गिन कर हवादिस में वो,"आनन’
’वोट’ की कीमत लगाने में लगे हैं
बहूत हि बढीया..गजल...

आनन्द पाठक ने कहा…

आ0 योगेश जी/शास्त्री जी और रीना जी

उत्साह् वर्धन के लिए आप सभी लोगो का बहुत बहुत धन्यवाद
सादर
आनन्द.पाठक