बुधवार, 21 सितंबर 2016

एक ग़ज़ल 82[27] : निक़ाब-ए-रुख़ में ...

1222---1222----1222-----1222
मफ़ाईलुन---मफ़ाईलुन---मफ़ाईलुन--मफ़ाईलुन
बह्र-ए-हज़ज मुसम्मन सालिम
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निक़ाब-ए-रुख में शरमाना, निगाहों का झुकाना क्या
ख़बर हो जाती है दिल को, दबे पाँवों  से आना क्या

अगर हो रूह में ख़ुशबू  तो ख़ुद ही फैल जाएगी
ज़माने से छुपाना क्या  ,तह-ए-दिल में  दबाना  क्या

अगर दिल से नहीं मिलता है दिल तो बात क्या होगी
दिखाने के लिए फिर हाथ का मिलना मिलाना क्या

क़यामत आती है दर पर ,झिझक कर लौट जाती है
तुम्हारा इस तरह चुपके से आना और जाना क्या

ख़ुदा कुछ तो अता कर दे मेरे मासूम दिलबर को
नहीं वो जानता होती वफ़ा क्या और निभाना क्या

तुम्हारी शोखियाँ क़ातिल अदाएं और भी क़ातिल
निगाह-ए-नाज़ की खंज़र से अब ख़ुद को बचाना क्या

क़सम खा कर भी न आना ,नहीं शिकवा गिला कोई
न आना था तो न आते ,ये झूटी कसमें खाना क्या

 कहीं का भी नहीं छोड़ा , सनम तेरी मुहब्बत ने
हुआ हूँ जाँ-ब-लब ’आनन’, तेरा आना न आना क्या

शब्दार्थ
ज़ाँ-ब-लब = मरणासन्न


-आनन्द.पाठक-
[सं 30-06-19]


3 टिप्‍पणियां:

डॉ. दिलबागसिंह विर्क ने कहा…

आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 22-09-2016 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2473 में दी जाएगी
धन्यवाद

Parul kanani ने कहा…

waah..bahut kamaal ki nazm!

रश्मि शर्मा ने कहा…

ख़ुदा कुछ तो अता कर दे मेरे मासूम दिलबर को नहीं वो जानता होती वफ़ा क्या और निभाना क्या
क्‍या बात है....बहुत उम्‍दा