गुरुवार, 23 जुलाई 2020

ग़ज़ल 153 : दीदार-ए-हक़ में ---

बह्र  मुज़ारे’ मुसम्मन अख़रब मक्फ़ूफ़ महज़ूफ़
मफ़ऊलु---फ़ाइलातु----मफ़ाईलु----फ़ाइलुन
221   -----2121-------1221-------212
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एक ग़ज़ल : दीदार-ए-हक़---

दीदार-ए-हक़ में दिल कोअभी ताबदार कर
दिल-नातवाँ को और ज़रा बेक़रार  कर

गुमराह हो रहा है भटक कर इधर उधर
इक राह-ए-इश्क़ भी है वही इख़्तियार कर

कब तक छुपा के दर्द रखेगा तू इस तरह
अब वक़्त आ गया है इसे आशकार  कर

कजरौ ! ये पैरहन भी इनायत किसी की है
हासिल हुआ है गर तुझे तो आबदार कर

हुस्न-ए-बुताँ की बन्दगी गर जुर्म है ,तो है
ऎ दिल ! हसीन  जुर्म  ये  तू बार बार कर

ऐ शेख ! सब्र कर तू , नसीहत न कर अभी
आता हूँ मैकदे से ज़रा इन्तिज़ार  कर

दुनिया हसीन है ,कभी तू देख तो सही
’आनन’ न ख़ुद को हर घड़ी तू अश्कबार कर

-आनन्द.पाठक-

शब्दार्थ --


आशकार      = ज़ाहिर
कज रौ = ऎंठ कर चलनेवाला
पैरहन = लिबास
आबदार =चमकदार /पानीदार
हुस्न-ए-बुताँ की = हसीनों की
नासेह = नसीहत करने वाला
अश्कबार          = आँसू बहाना

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