गुरुवार, 27 अगस्त 2020

ग़ज़ल 154 : ज़िन्दगी से हमेशा -बग़ावत रही



212----212----212----212
फ़ाइलुन--फ़ाइलुन--फ़ाइलुन-फ़ाइलुन
बह्र-ए-मुतदारिक मुसम्मन सालिम
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ग़ज़ल 154  : ज़िन्दगी से हमेशा ---

ज़िन्दगी से हमेशा   बग़ावत रही
ज़िन्दगी को भी मुझ से शिकायत रही

कौन-सी शर्त थी जो निभाई नही ?
मेरे ख़्वाबों से फिर क्यूँ अदावत रही ?

राह कोई मुकम्मल न हासिल हुई
मोड़ हर मोड़ पर बस कबाहत रही

अर्श से फ़र्श पर गिर के ज़िन्दा रहे
ज़िन्दगी ये भी तेरी इनायत  रही

रंज-ओ-ग़म हो ख़ुशी हो  कि हो दिल्लगी
मुख़्तसर ज़िन्दगी की हिकायत रही

पास आकर ज़रा बैठ ,ऎ ज़िन्दगी !
उम्र भर तुझ से मिलने की चाहत रही

राह-ए-हक़ पर जो चलना था ’आनन’ तुझे
बुतपरस्ती मगर तेरी आदत रही

-आनन्द.पाठक--

हिकायत = कहानी
कबाहत  = परेशानी
राह-ए-हक़  पर= हक़ीक़ी मार्ग पर
बुतपरस्ती  = सौन्दर्य पूजन ,

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