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ग़ज़ल 172
जो कहा तुमने ,मैने माना है
जानता था कि वो बहाना है
बारहा ज़िन्दगी नहीं मिलती
जो मिली है उसे निभाना है
हसरतें दिल की दिल में दफ़्न हुईं
राज़ यह भी नहीं बताना है
मौत उलझी हुई पहेली है
ज़िन्दगी इक नया फ़साना है
एक रिश्ता अज़ल से है क़ायम
क्या नया और क्या पुराना है
इश्क़ की राह में सुकून कहाँ
साँस जब तक है चलते जाना है
किस ख़ता की सज़ा है ये,’आनन’
रुख से पर्दा नहीं उठाना है
-आनन्द.पाठक-
शब्दार्थ
बारहा = बार बार
अज़ल = आदि काल से
2 टिप्पणियां:
मन के कुछ राज़ जिन पर पर्दा ही रहे तो बेहतर ....
यूँ ग़ज़ल तो कमाल की है ....
बारहा ज़िन्दगी नहीं मिलती
जो मिली है उसे निभाना है .
इस निबाहने में ही तो बीत जाती सारी ज़िन्दगी ....
बहुत खूब ....
जी आभार आप का
सादर
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