एक ग़ज़ल 041 ओके
[09 A]: कोई नदी जो उनके..
221---2122-// 221---2122
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कोई नदी जो उनके ,घर
से गुज़र गई है
चढ़ती हुई जवानी , पल
में उतर गई है
[सं 22-06-19]
’बँगलों" की
क्यारियों में, पानी
तमाम पानी
प्यासों की बस्तियों में, सूखी नहर गई है ।
’परियोजना तो वैसे ’हिमखण्ड’ की तरह थी
पिघली तो भाप बन कर, उड़ कर
किधर गई है।
हम बूँद बूँद तरसे, थी
तिश्नगी लबों की
आई लहर तो उनके, आँगन
ठहर गई है ।
’’छमियाँ से
पूछ्ना था, थाने में खींच लाए
’साहब’ से पूछना है, ’सत्ता’
सिहर गई है ।
वो आम आदमी है, हर
रोज़ लुट रहा है
क्या पास है जो उसके, सरकार
डर गई है ?
क्या फ़िक्र रंज़-ओ-ग़म है, क्या
सोचते हो ’आनन’?
फिर क्यों नहीं गए तुम, दुनिया
जिधर गई है ?
[सं 22-06-19]
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