मंगलवार, 16 फ़रवरी 2016

एक ग़ज़ल 77[23] : कहाँ तक रोकते दिल को...

एक ग़ैर रवायती ग़म-ए-दौरां की ग़ज़ल......
1222---1222----1222---1222

कहाँ तक रोकता दिल को कि जब होता दिवाना है
ज़माने  से    बगावत   है ,  नया आलम  बसाना है

मशालें   इल्म की  लेकर  चले थे  रोशनी करने
जो अबतक ख़्वाब में खोए ,उन्हे तुम को जगाना है 

यूँ जिनके शह पे कल तुमने एलान-ए-जंग तो कर दी 
कि उनका एक ही मक़सद ,तुम्हें  मोहरा बनाना है

धुँआ  आँगन से उठता है तो अपना दम भी घुटता है
तुम्हारा शौक़ है या साज़िशों  का ताना-बाना  है

लगा कर आग नफ़रत की सियासी रोटियाँ  सेंको
अरे ! क्या हो गया तुमको जो अपना घर जलाना है

-" शहीदों की चिताऒं पर लगेंगे  हर बरस मेले "-
यहाँ की धूल पावन है , तिलक माथे लगाना है

तुम्हारे बाज़ुओं में  दम है कितना ,जानता ’ आनन’
हमारे बाजुओं  का ज़ोर अब तुमको  दिखाना है 

-आनन्द.पाठक-

[सं 30-06-19]

5 टिप्‍पणियां:

मुकेश कुमार सिन्हा ने कहा…

लाजवाब

आनन्द पाठक ने कहा…

shukriyah aap ka

-anand.pathak

Chanchal Sakshi ने कहा…

bhut badhiya...

aap mere blog pe bhi apna najariya de sakte hai https://therachayita.blogspot.in. aapko to pata hoga ek poet dusre ko achhe se samajh sakta hai :) thanks

Unknown ने कहा…

Sir pranaam, sir Twitter par aap hai kyaa? Mai aapka shayari Twitter par #anandpathak se kar rahaa hu... Serch karke dekh sakte hain... Mera id @sanandjha

Unknown ने कहा…

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