मुज़ारे’ मुसम्मन अख़रब
मक्फ़ूफ़ मक्फ़ूफ़ मुख़्न्निक़ सालिम अल आखिर
मफ़ऊलु---फ़ाअ’लातुन // मफ़ऊलु---फ़ाअ’लातुन
221--------2122 //
221-------2122
यूँ तो तेरी गली से , मैं बार बार गुज़रा
लेकिन हूँ जब भी गुज़रा ,मैं सोगवार गुज़रा
तुमको यकीं न होगा ,गर दाग़-ए-दिल दिखाऊँ
राहे-ए-तलब में कितना ,गर्द-ओ-ग़ुबार गुज़रा
आते नहीं हो अब तुम ,क्या हो गया है तुमको
क्या कह गया हूँ ऐसा ,जो नागवार गुज़रा
दामन बचा बचा कर ,मेरे मकां से बच कर
रुख पर निक़ाब डाले ,मेरा निगार गुज़रा
मैं चाहता हूँ कितना तुझको ख़बर न होगी
राह-ए-वफ़ा से तेरा सजदागुज़ार गुज़रा
सारे गुनाह मेरे हैं साथन साथ चलते
दैर-ओ-हरम के आगे ,मैं शर्मसार गुज़रा
रिश्तों की मैं तिज़ारत करता नहीं हूं,’आनन’
मेरी तरह से वो भी था गुनहगार गुज़रा
-आनन्द पाठक-
[सं 30-06-19]
राह-ए-तलब = प्रेम के मार्ग में
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें