एक युगल गीत
कैसे कह दूँ कि अब तुम बदल सी गई
वरना क्या मैं समझता नहीं बात क्या !
एक पल का मिलन ,उम्र भर का सपन
रंग भरने का करने लगा था जतन
कोई धूनी रमा , छोड़ कर चल गया
लकड़ियाँ कुछ हैं गीली बची कुछ अगन
कोई चाहत बची ही नहीं दिल में अब
अब बिछड़ना भी क्या ,फिर मुलाक़ात क्या !
वरना क्या मैं समझता----
यूँ जो नज़रें चुरा कर गुज़र जाते हों
सामने आने से तुम जो कतराते हो
’फ़ेसबुक’ पर की ’चैटिंग’ सुबह-शाम की
’आफ़-लाइन’- मुझे देख हो जाते हो
क्यूँ न कह दूँ कि तुम भी बदल से गए
वरना क्या मैं समझती नहीं राज़ क्या !
ये सुबह की हवा खुशबुओं से भरी
जो इधर आ गई याद आई तेरी
वो समय जाने कैसे कहाँ खो गया
नीली आंखों की तेरी वो जादूगरी
उम्र बढ़ती गई दिल वहीं रह गया
ज़िन्दगी से करूँ अब सवालात क्या !
वरना क्या मैं समझता नहीं-------
ये सही है कि होती हैं मज़बूरियाँ
मन में दूरी न हो तो नहीं दूरियाँ
यूँ निगाहें अगर फेर लेते न तुम
कुछ तो मुझ में भी दिखती तुम्हें ख़ूबियाँ
तुमने समझा मुझे ही नहीं आजतक
ना ही समझोगे होती है जज्बात क्या !
वरना क्या मैं समझती नहीं--------
-आनन्द.पाठक-
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