1222---1222--1222--122 ओके
एक ग़ज़ल 104[04 A] : जड़ों तक साजिशें गहरी---
जड़ों तक साज़िशें गहरी ,सतह पर हादसे थे
जहाँ बारूद की ढेरी , वहीं पर घर बने थे
हवा में मुठ्ठियाँ ताने जो सीना ठोकते थे
ज़रूरत जब पड़ी उनकी तो उनके सर झुके थे
कि उनकी आदतें थी आसमाँ ही देखते चलना
ज़मीं पाँवों के नीचे खोखली ,फिर भी खड़े थे
तबादिल रोशनी के वह, अँधेरा ले के आए हैं
वो अपने आप की परछाईयों से यूँ डरे थे
हमारी चाह थी इतनी कि दर्शन आप के हों
मिले जब भी कहीं हम आप से ,चेहरे चढ़े थे
बहुत उम्मीद थी ’आनन’ ,बहुत आवाज़ भी दी
कि जिनको चाहिए था जागना .सोए हुए थे
-आनन्द.पाठक--
कि जिनको चाहिए था जागना .सोए हुए थे
-आनन्द.पाठक--
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