ग़ज़ल 105 [55 A]
221---2121----1221----212
वातानुकूलित आप ने आश्रम बना लिए
सत्ता के इर्द-गिर्द ही धूनी रमा लिए
’दिल्ली’ में बस गए हैं ’तपोवन’ को छोड़कर
’साधू’ भी आजकल के मुखौटे चढ़ा लिए
सब वेद ज्ञान श्लोक ॠचा मन्त्र बेच कर
जो धर्म बच गया था दलाली में खा लिए
आए वो ’कठघरे’ में न चेहरे पे थी शिकन
साहिब हुज़ूर जेल ही में घर बसा लिए
ये आप का हुनर था कि जादूगरी कोई
ईमान बेच बेच के पैसा कमा लिए
गूँगों की बस्तियों में वो अन्धों की भीड़ में
खोटे तमाम जो भी थे सिक्के चला लिए
’आनन’ तुम्हारा मौन कि माना बहुत मुखर
लेकिन जहाँ था बोलना क्यों चुप लगा लिए
-आनन्द.पाठक-
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