ग़ज़ल 160
1222---1222---1222--1222
मफ़ाईलुन--मफ़ाईलुन--मफ़ाईलुन--मफ़ाईलुन
बह्र-ए-हज़ज मुसम्मन सालिम
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ख़ुशी मिलती है उनको साजिशों के ताने-बाने में,
छ्लकता दर्द है घड़ियाल-सा आँसू बहाने में।
हिमालय से चली नदियाँ बुझाने प्यास धरती की,
लगे कुछ लोग हैं बस तिश्नगी अपनी बुझाने में।
हवाएँ क्यों डराती हैं ,चिरागों को बुझाती हैं,
कि जिनका काम था ख़ुशबू को फ़ैलाना ज़माने में।
हमारे आँकड़े तो देख हरियाली ही हरियाली,
उधर तू रो रहा है एक बस ’रोटी’ बनाने में ?
मिलेगी जब कभी फ़ुरसत, तुम्हें ’रोटी’ भी दे देंगे,
अभी मसरूफ़ हूँ तुमको नए सपने दिखाने में।
जहाँ क़ानून हो अन्धा, जहाँ आदिल भी हो बहरा,
वहाँ इक उम्र कट जाती किसी का हक़ दिलाने में।
अँधेरा ले के लौटे है,हमारे हक़ में वो ’आनन,’
मगर है रोशनी का जश्न उनके आशियाने में ।
-आनन्द.पाठक-
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