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मित्रो ! पिछली पोस्ट में मैने लिखा था कि इस संस्करण को मैं द्वितीय संस्करण का
नाम नहीं दे रहा हूँ। क्यों नहीं दे रहा हूँ, इसका स्पष्टीकरण इस भूमिका में कर
दिया हूँ।आप भी पढ़ें।]
अभी
संभावना है -- ग़ज़ल संग्रह की भूमिका से--
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मैं स्वीकार करता हूँ ------
अभी संभावना है- [ गीत ग़ज़ल संग्रह] की यह संशोधित
आवृति आप के हाथों में है। मैं इसे द्वितीय संस्करण का नाम नही दे रहा हूँ अपितु
यह पहली आवॄति की पुनरावृति या अधिक से अधिक इसे परिष्कॄत, परिवर्तित, परिशोधित या
परिवर्धित रूप कह सकते हैं। आप के मन में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि मै ऎसा
क्यों कह रहा हूँ या फिर इस आवृति की आवश्यकता ही क्या थी ?
मेरी पहली पुस्तक –शरणम श्रीमती जी-[ व्यंग्य संग्रह] थी जो सन
2005 में प्रकाशित हुई थी। ठीक उसके बाद मेरी दूसरी पुस्तक- अभी संभावना है—[गज़ल
गीत संग्रह] थी जो सन 2007 में प्रकाशित हुई थी और वह मेरा प्रथम ग़ज़ल संग्रह था, जिसमें
मेरी कुल 68 ग़ज़लें, 21 गीत संग्रहित थे।
17-18 साल बाद, आज जब मैं मुड़ कर देखता हूँ तो मैं यह निस्संकोच
स्वीकार करता हूँ –उसमें ग़ज़ल कहाँ थी ? शे’रियत कहाँ थी ,ग़ज़लियत कहाँ थी, तग़ज़्ज़ुल
कहाँ था? बस नाम मात्र की ’तथाकथित’ कुछ ग़ज़लनुमा चीज़ थी मगर वो ग़ज़ल न थी। न
क़ाफ़िया, न रदीफ़, न बह्र, न वज़न, न अर्कान, न अरूज़ । बस कुछ जुमले, कुछ अधकचरी
तुकबंदी-सी कोई चीज़ थी जिन्हें उन दिनों मैं ग़ज़ल समझता था। उस वक़्त मुझे ये सब
इस्तेलाहात [परिभाषाएँ] मालूम न थे। इधर उधर से कुछ पढ़ कर, कुछ लोगो से सुन सुना
कर तुकबंदिया करने लगा था। वह एक मात्र बाल सुलभ-प्रयास था, न ग़ज़लियत, न तगज़्ज़ुल,
न शे’रियत। यह बात मैने पहली आवृति में खुले मन से स्वीकार भी किया और लिखा भी था ।
मुझे आज भी यह सब स्वीकार करने में रंच मात्र भी संकोच नहीं। कारण
उर्दू मेरी मादरी ज़ुबान नहीं। वक्त बीतता गया । अनुभव होता गया। मैं अन्य विधाओं
जैसे व्यंग्य, माहिया, दोहा, गीत अनुभूतियां, मुक्तक, कविता आदि के लेखन में
व्यस्त हो गया। साथ ही अरूज़ का सम्यक अध्ययन भी करने लग गया। स्वयं सर संधान करने
लग गया। शरद तैलंग साहब का एक शे’र है-
सिर्फ़ तुकबन्दियाँ काम
देंगी नहीं
शायरी कीजिए शायरी की तरह
।
- आज
मैं यह स्वीकार करता हूँ कि पुस्तक की पहली आवृति किसी मुस्तनद उस्ताद को दिखा
लेना चाहिए था तो फिर ऐसी नौबत न आती। अफ़सोस ! ऐसा हो न सका। शायरी को शायरी की
तरह न कर सका। आज भी नहीं कर सकता।
शायरी को शायरी की तरह करने के लिए ज़रूरी था कि या तो कोई मुस्तनद [
प्रामाणिक] उस्ताद मिलते या अरूज़ [ ग़ज़ल का व्याकरण] पढ़्ता और समझता। पहला विकल्प
तो हासिल न हो सका। कारण कि किसी ने मुझे ’शागिर्द’ बनाया ही नहीं, न ही मुझे
शागिर्द बनाने के योग्य समझा। न ही किसी ने ’गण्डा’ बाँधा । सो मैने स्वाध्याय पर
ही भरोसा किया।
मगर
इसमें भी एक समस्या थी। अरूज़ की जितनी प्रामाणिक किताबे थी सब उर्दू लिपि [ रस्म
उल ख़त] में थी। फिर भी मैने स्वाध्याय से काम भर या काम चलाऊ उर्दू सीखना शुरु
किया । “आए थे हरि भजन को , ओटन लगे कपास”। अल्हम्द्लल्लाह , ख़ुदा ख़ुदा कर कुछ कुछ
उर्दू, किताबों से पढ़ना सीखा। अरूज़ की किताबों का अध्ययन किया, इन्टर्नेट पर
तत्संबधित सामग्री का मुताअ’ला [ अध्ययन ] किया । अभी बहुत कुछ सीखना है। सीखने का
सफ़र खत्म नहीं होता। निरन्तर चलता रहता है। जितना समझ सका, उतना मैने अपने एक
ब्लाग “उर्दू बह्र पर एक बातचीत “ [www.arooz.co.in] के
नाम से, यकज़ा [ एक जगह ] फ़राहम कर दिया जिससे मेरे वो हिंदीदाँ दोस्त जो शायरी से
ज़ौक-ओ-शौक़ फ़रमाते हैं, लगाव रखते हैं।मुस्तफ़ीद [ लाभान्वित ] हो सकें
इतने के बावज़ूद, मैने कभी खुद को शायर
होने का दावा नहीं किया और न कभी कर सकता हूँ । बस एक अदब आशना हूँ।
न आलिम, न शायर, न उस्ताद ’आनन’
अदब से मुहब्बत, अदब आशना हूँ ।
ख़ैर, सोचा कि अब वक़्त आ गया है कि अपने उस पहले ग़ज़ल संग्रह -अभी
संभावना है – में जो कमियाँ या ख़ामियाँ रह गई थीं उन्हे यथा संभव अब दुरुस्त
कर दिया जाए। एक विकल्प यह था कि जो हो गया सो हो गया और जैसे है उसे वैसे ही छोड़
दें। As it is, where it is| मगर सारी रचनाएं मेरी ही थीं, मेरा
ही सृजन था, कैसे छोड़ सकता था भला। यथाशक्ति सुधार करना ही बेहतर समझा ।
यह काम इतना आसान भी नहीं था,
मगर नामुमकिन भी नहीं था। अत: उन तमाम [68] ग़ज़लों और गीतों को स्वप्रयास से सुधारना
शुरु किया । ग़ज़लो और गीतों का क्रम भी वही रखा जो पहली आवृति में था। मुझे यक़ीन था
यह काम एक दिन में नहीं होगा, मगर ’एक दिन’ होगा ज़रूर। शनै: शनै: एक दिन यह भी काम
पूर्ण हो गया, जो अब आप लोगों के हाथॊं में है।
अनुभव के आधार पर, एक बात ज़रूर कहना चाहूँगा। । किसी विकृति,
टेढ़े-मेढ़े, जर्जर भवन का जीर्णोंद्धार कर, उसे सही एवं सुकृति भवन बनाने से आसान है नया सृजन ही कर देना। ख़ैर, इस आवृति
में कोशिश यही रही कि पुरानी ग़जलॊ का केन्द्रीय भाव [core structure] यथा संभव वही रहे, मगर बहर में
रहे,वज़न में रहे, कम से कम रदीफ़ तो सही
रहे-क़ाफ़िया तो सही रहे। मूल भावना यही थी कि ग़ज़ल का मयार [स्तर,standard, भावपक्ष] जो
भी हो जैसा भी हो, कम अज कम कलापक्ष, व्याकरण पक्ष, अरूज़ के लिहाज़ से तो सही हो ।
और यही कोशिश यथा संभव मैने इस संशोधित /परिवर्धित आवृति में की है।
मयार/
शे’रियत/ ग़ज़लियत/ तग़ज़्ज़ुल तो ख़ैर हर शायर का अपना अंदाज़-ए-बयाँ होता है,अलग होता
है, मुख़्तलिफ़ होता जो.उसकी क़ाबिलियत. उसके हुनर, उसके फ़न उसके फ़हम उसकी सोच, सोच
की बुलन्दी, तख़य्युल वग़ैरह पर मुन्हसर [ निर्भर] होता है। इस पर मुझे विशेष कुछ
नहीं कहना है। इसके लिए सही अधिकारी आप लोग हैं, पाठकगण हैं।
यह संशोधित संस्करण आप लोगों के हाथों सौंप
रहा हूँ । आप की टिप्पणियों का, सुझावों का, प्रतिक्रियाओं का सदैव स्वागत रहेगा।
चलते
चलते एक बात और—
शायरी [ या किसी फ़न] में ’हर्फ़-ए-आख़िर’ कुछ नहीं होता।
सादर
-आनन्द.पाठक
‘आनन’ -
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