फिसल गए तो हर हर गंगे ,जै माँ गंगे ! जै माँ गंगे !
वो विकास की बातें करते करते जा कर बैठे दिल्ली
कब टूटेगा "छीका" भगवन ! नीचे बैठी सोचे बिल्ली
शहर अभी बसने से पहले ,इधर लगे बसने भिखमंगे
जै माँ गंगे ! जै माँ गंगे ! ........
नई हवाऒं में भी उनको जाने क्यों साजिश दिखती है
सोच अगर बारूद भरा हो मुठ्ठी में माचिस दिखती है
सीधी सादी राहों पर भी चाल चला करते बेढंगे
जै माँ गंगे ! जै माँ गंगे ! .....
घड़ीयाली आँसू झरते हैं, कुर्सी का सब खेलम-खेला
कौन ’वाद’? धत ! कैसी ’धारा’,आपस में बस ठेलम-ठेला
ऊपर से सन्तों का चोला ,पर हमाम में सब हैं नंगे
जै माँ गंगे ! जै माँ गंगे !
रामराज की बातें करते आ पहुँचे हैं नरक द्वार तक
क्षमा-शील-करुणा वाले भी उतर गए है पद-प्रहार तक
बाँच रहे हैं ’रामायण’ अब ,गली गली हर मोड़ लफ़ंगे
जै माँ गंगे ! जै माँ गंगे !
अच्छे दिन है आने वाले साठ साल से बैठा ’बुधना"
सोच रहा है उस से पहले उड़ जाए ना तन से ’सुगना’
खींच रहे हैं "वोट" सभी दल शहर शहर करवा कर दंगे
जै माँ गंगे ! जै माँ गंगे !
-आनन्द-पाठक-
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