ग़ज़ल 115 [24 A]-ओके
2122---1212---22
फ़ाइलातुन--मुफ़ाइलुन--- फ़ेलुन
बेसबब उसको मेह्रबाँ देखा
जब भी देखा तो बद्गुमाँ देखा
पास पत्थर की थी दुकां ,देखी
जब भी शीशे का इक मकां देखा
जिसको "कुर्सी’ अज़ीज होती है
उसको बिकते हुए यहाँ देखा
क़स्में खाता है वो निभाने की
पर निभाते हुए कहाँ देखा
जब कभी ’रथ’ उधर से गुज़रा है
देर तक बस धुआँ धुआँ देखा
वक़्त का जो था ताजदार कभी
उसका मिटते हुए निशां देखा
झूठ था हर जगह तवाँ ’आनन’
सच को देखा तो नातवाँ देखा ।
=आनन्द.पाठक-
[बह्र-ए-बेकरां = अथाह सागर]
[सं 12-04-19]
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